न हुड्डा उतरे न सैलजा, गुटबाजी जस की तस, हरियाणा में कांग्रेस के सफाए से पार्टी कब लेगी सबक?

हरियाणा की सत्ता में वापसी की उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद से कांग्रेस का शहरी इलाके से भी पूरी तरह सफाया हो गया है. सूबे के विधानसभा चुनाव में करारी मात खाने के साढ़े पांच महीने बाद निकाय चुनाव में भी कांग्रेस जीरो पर सिमट गई है जबकि बीजेपी ट्रिपल इंजन की सरकार बनाने में सफल रही. सीएम नायब सिंह सैनी के नेतृत्व में शहरी निकाय चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस को शिकस्त देकर नगर निगम, नगर परिषद और नगरपालिका में ‘कमल’ खिलाने में कामयाब रही तो कांग्रेस की स्थिति निल बटे सन्नाटा रही.

हरियाणा के कांग्रेस नेताओं की गुटबाजी के चलते विधानसभा चुनाव में हुए नुकसान से शहरी निकाय चुनाव में कोई सबक नहीं लिया. कांग्रेस नेताओं ने निकाय चुनाव को बहुत ही हलके अंदाज में लिया. पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, सांसद कुमारी सैलजा, रणदीप सिंह सुरजेवाला और कैप्टन अजय यादव को शहरी निकाय चुनाव में ना तो किसी मंच पर एक साथ देखा गया और ना ही अलग-अलग या नेता बहुत ज्यादा सक्रिय नजर आए. इस तरह कांग्रेस में गुटबाजी जस की तस बनी रही और शहरी निकाय में उतरे पार्टी उम्मीदवारों को उनके भरोसे छोड़ दिया. इसका नतीजा रहा है कि कांग्रेस का शहरी इलाके से पूरी तरह सफाया हो गया. ऐसे में सवाल ये उठता है कि कांग्रेस कब सबक लेगी?

निकाय चुनाव में कांग्रेस जीरो पर आउट
प्रदेश के 38 शहरी निकाय क्षेत्रों में चुनाव हुए हैं, जिसमें 10 नगर निगम, 5 नगर परिषद और 23 नगर पालिका क्षेत्र में अध्यक्ष और पार्षद सीटें शामिल थी. राज्य की 10 नगर निगम क्षेत्र में से 9 नगर निगमों में बीजेपी ने कब्जा जमाया है और मानेसर नगर निगम सीट पर निर्दलीय ने जीत दर्ज की है. इसी तरह पांच नगर परिषद की सीटों पर हुए चुनाव में बीजेपी ने क्लीन स्वीप किया और सभी पांचों नगर परिषद पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही. इसके अलावा 23 नगर पालिका सीटों पर चुनाव में से आठ जगह बीजेपी ने जीती है जबकि शहरों में 15 निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है. 23 नगर पालिकाओं में से 14 पर बीजेपी ने कमल के फूल पर चुनाव लड़ा था, जबकि नौ नगर पालिकाओं में बीजेपी और कांग्रेस किसी ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था. इसके चलते उन सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है. इस चुनाव में बीजेपी को जबरदस्त लाभ मिला है तो कांग्रेस को तगड़ा झटका. कांग्रेस ने अपने कब्जे वाली दो नगर निगम सीटों को भी गंवा दिया है.

पांच साल पहले शहरी निकाय चुनाव हुए थे, उस समय नगर निगम की 9 सीटें थी. इनमें से बीजेपी ने छह, कांग्रेस ने दो और एक नगर निगम में निर्दलीय के महापौर चुने गए थे. इस बार किसी भी शहरी निकाय सीट पर कांग्रेस जीत दर्ज नहीं कर सकी, जो पार्टी के लिए बड़ा झटका है. बीजेपी 9 नगर क्षेत्र में जीती है और मानेसर नगर निगम में उसे हार का सामना करना पड़ा, लेकिन जिस तरह से यहां निर्दलीय चुने गए मेयर डॉ.इंद्रजीत यादव ने केंद्रीय राज्य मंत्री राव इंद्रजीत के नाम पर वोट मांगे, उससे लग रहा है कि वे भी देर सबेर कमल के फूल में आस्था जता सकते हैं.

कांग्रेस के दिग्गज नहीं बचा सके अपना दुर्ग
हरियाणा के सारे कांग्रेसी दिग्गजों के इलाके में बीजेपी जीत दर्ज करने में कामयाब रही है. सोनीपत से लेकर रोहतक, सिरसा से लेकर गुरुग्राम तक बीजेपी ने जीत दर्ज की है. हुड्डा परिवार के प्रभाव वाले रोहतक और सोनीपत नगर निगम सीट पर कांग्रेस को शिकस्त खानी पड़ी है. कुमारी सैलजा के प्रभाव वाले सिरसा और अंबाला में भी कांग्रेस का सफाया हो गया है. इसके अलावा कैप्टन अजय यादव के दबदबे वाले मानेसर और गुरुग्राम क्षेत्र में भी कांग्रेस जीत नहीं सकी. इसकी वजह ये भी है कि कांग्रेस के दिग्गजों का प्रभाव उनके इलाके में भी कम होता दिख रहा है. इतना ही नहीं ये सभी कांग्रेस नेता एक साथ न ही कहीं प्रचार करते नजर आए और न ही अपना दुर्ग बचाने में कामयाब रहे. नगर परिषदों में सिरसा की जीत संदेश देने वाली रही है. सिरसा में बीजेपी और हलोपा प्रमुख गोपाल कांडा और उनके भाई गोबिंद कांडा ने मिलकर साझा प्रत्याशी उतारा था. गोपाल कांडा की पार्टी हलोपा नेशनल स्तर पर एनडीए का हिस्सा है. यहां बीजेपी व हलोपा के साझा उम्मीदवार शांति स्वरूप ने चुनाव जीता. सिरसा से ही कुमारी सैलजा सांसद हैं और न ही विधानसभा में अपनी क्षेत्र को सुरक्षित रख सकीं और न ही निकाय चुनाव में. ऐसे ही स्थिति कैप्टन अजय यादव की रही.

कांग्रेस कैंडिडेट को मझधार में छोड़ा
कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने निकाय चुनाव को बहुत गंभीरता से नहीं लिया और अधिकतर शहरी निकायों में उन्होंने अपने उम्मीदवारों को उनके ही भरोसे छोड़ दिया था. रोहतक और सोनीपत नगर निगम को छोड़कर कांग्रेस नेता बाकी किसी शहरी निकाय में चुनाव लड़ने को लेकर गंभीर नजर नहीं आए. इसका नतीजा रहा कि कांग्रेस उम्मीदवारों को भारी मतों से हार का सामना करना पड़ा है. भूपेंद्र सिंह हुड्डा खुद कहते हैं कि वो निकाय चुनाव में बहुत ज्यादा सक्रिय नहीं थे. इसीलिए उन्हें हार का जिम्मेदार न माना जाए. बीजेपी को निकाय चुनाव में केंद्र और राज्य में अपनी सरकारों के होने के साथ-साथ जनकल्याण के फैसलों का लाभ मिला है, लेकिन कांग्रेस को एक बार फिर से अपनी गुटबाजी, संगठन की कमी तथा पार्टी नेताओं की निष्क्रियता का खामियाजा भुगतना पड़ा है. कांग्रेस विधायकों ने इस चुनाव में ज्यादा रुचि नहीं ली. सांसद दीपेंद्र सिंह हुड्डा का चुनाव प्रचार रोहतक तक सीमित रहा, जबकि वे सोनीपत में पार्टी प्रत्याशी के बहुत अनुरोध पर गए.

हरियाणा में कांग्रेस के सबसे बड़ा चेहरा पूर्व सीएम भूपेंद्र हुड्डा ने तो यहां तक कह दिया था कि वे हर चुनाव में प्रचार करने के लिए नहीं जाते हैं. वह सिर्फ बड़े चुनाव लोकसभा और विधानसभा पर ही फोकस करते हैं. नेताओं की प्रचार से दूरी से जनता में मैसेज गया कि कांग्रेस की खुद इस चुनाव में दिलचस्पी नहीं है, ऐसे में उन्हें जिताया तो आगे काम भी नहीं होंगे. इस तरह कांग्रेस के उम्मीदवार अपने दम पर ही मशक्कत करते नजर आए और जीत से महरूम रह गए.

कांग्रेस में कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन
हरियाणा कांग्रेस में कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन हैं, जिसके चलते उसे जीत का सॉल्यूशन नहीं मिल रहा. कांग्रेस उम्मीदवार को विधानसभा चुनाव के बाद निकाय चुनाव में भी संगठन की कमी खली. प्रदेश में 11 साल से पार्टी का संगठन नहीं है. बिना संगठन ग्राउंड पर वर्कर एकजुट नहीं हो पाए. हालांकि, कांग्रेस के हाईकमान ने संगठन बनाने की बजाय निकाय चुनाव के लिए नियुक्तियों संबंधी चार सूचियां जरूर जारी की, लेकिन अधिकतर नेताओं में पार्टी के स्टार प्रचारक वाली सूची में अपना नाम जुड़वाने के लिए मारामारी मची रही. हिसार और करनाल समेत कई जिलों में ऐसे शहरी निकाय ऐसे थे, जहां कांग्रेस को उम्मीदवार ही नहीं मिले. निर्दलियों को समर्थन देकर कांग्रेस ने अपनी साख बचाने की कवायद की है. प्रदेश में पांच फरवरी को निकाय चुनाव की घोषणा हुई थी. कांग्रेस हाईकमान ने 14 फरवरी को प्रदेश प्रभारी दीपक बाबरिया को हटा दिया. इस तरह पहले से ही गुटबाजी में फंसी कांग्रेस पूरी तरह बिखर गई . नए प्रभारी बीके हरिप्रसाद राज्य के कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए कोई करिश्मा नहीं कर पाए. इतना ही नहीं हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए साढ़े पांच महीने हो गए हैं, लेकिन कांग्रेस को अभी तक विधानसभा में विपक्ष का नेता नहीं मिल पाया है. इससे कांग्रेस विधायकों खासकर पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा में काफी निराशा का माहौल है. इसके चलते न ही हुड्डा परिवार और न ही उनके समर्थक बहुत ज्यादा निकाय चुनाव में सक्रिय नजर आए, जिसका खामियाजा कांग्रेस प्रत्याशियों को उठाना पड़ा.

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