2019 की पराजय से घबराए अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने परिवार की सीटों की घेराबंदी पुख्ता कर ली है. उस चुनाव में कन्नौज सीट अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने गंवा दी थी. उनकी पत्नी डिंपल यादव को इस सीट से हार का मुंह देखना पड़ा था. जबकि अमेठी की परंपरागत सीट से राहुल गांधी हार गए थे. इसलिए अचानक कन्नौज से सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने खुद उम्मीदवारी दाखिल की और अमेठी के पास की रायबरेली सीट से राहुल गांधी ने पर्चा भर दिया. 2019 में रायबरेली ही वह इकलौती सीट थी, जो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खाते में गई थी. उस समय उनकी मां सोनिया गांधी यहां से जीती थीं. सोनिया गांधी अब राजस्थान से राज्य सभा में हैं. लेकिन राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस का कुनबा इतना घबराया हुआ है कि अमेठी सीट पर उन्होंने गांधी परिवार के किसी शख्स को नहीं लड़वाया.
किशोरी लाल की सक्रियता
अमेठी से कांग्रेस ने केएल शर्मा को मैदान में उतारा है. लुधियाना, पंजाब के मूल निवासी किशोरी लाल शर्मा 1983 से अमेठी में बतौर कांग्रेस कार्यकर्त्ता सक्रिय हैं. वे अमेठी तब आए जब संजय गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने यहां से चुनाव लड़ा. वे इंदिरा गांधी की मामी और पूर्व केंद्रीय मंत्री शीला कौल के पोते लगते हैं. 1999 में जब सोनिया गांधी ने रायबरेली से लोकसभा चुनाव लड़ने का मन बनाया तो वे रायबरेली में भी उसी तत्परता से काम देखने लगे. तब यहां भाजपा के अशोक सिंह सिटिंग एमपी थे. सूत्र बताते हैं कि वे सोनिया गांधी परिवार के बहुत करीबी हैं. उन्हें अमेठी और रायबरेली में हर गांव-गली के लोग जानते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में अमेठी से भाजपा की स्मृति ईरानी जीती थीं. मगर किशोरी लाल शर्मा ने अमेठी से अपना नाता नहीं तोड़ा और वे यहां पर राहुल गांधी के प्रतिनिधि के तौर पर सक्रिय रहे.
हर सीट को पकड़ना है
उत्तर प्रदेश की एक-एक सीट भाजपा गठबंधन और कांग्रेस के इंडिया गठबंधन के लिए जरूरी है. हालांकि कांग्रेस यहां कुल 17 सीटों पर लड़ रही है तथा उसकी साथी समाजवादी पार्टी 62 सीटों पर. बची एक सीट समझौते के तहत तृणमूल कांग्रेस (TMC) को मिली है. भदोही से कमलापति त्रिपाठी के पौत्र ललितेश पति त्रिपाठी तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार हैं. कांग्रेस की निगाह अपने कोटे की सभी 17 सीटों पर है. यद्यपि पिछला चुनाव वह सिर्फ रायबरेली में ही जीत पाई थी. लेकिन इस बार रायबरेली सीट से राहुल गांधी द्वारा स्वयं चुनाव लड़ने से कांग्रेस उत्साहित है. उसको उम्मीद है कि इस बार शायद 2009 दोहरा जाए. हालांकि अभी यह दूर की कौड़ी है पर कोई भी राजनैतिक दल हो वह चुनाव तो जीतने के लिए ही लड़ता है. सेंट्रल यूपी एक जमाने में कांग्रेस का गढ़ रहा है. इसलिए कांग्रेस को रायबरेली से पूरी उम्मीद है और अमेठी की सीट पर परिवार भले न हो मगर किशोरी लाल शर्मा अमेठी को स्मृति ईरानी के लिए हलवा तो नहीं बनने देंगे.
कार्यकर्त्ताओं का वोकल हो जाना अच्छी बात नहीं
इसी तरह अखिलेश यादव ने आखिरी क्षणों में कन्नौज से पर्चा भर कर यहां सपा के वोटों की घेरेबंदी कर ली है. साथ ही बगल की मैनपुरी, फिरोजाबाद और बदायूं में भी लड़ाई चौकस कर दी है. इसके बावजूद कन्नौज में भाजपा के सुब्रत पाठक लड़ाई में हैं. लेकिन अखिलेश के पर्चा भरने से यह जरूर हो गया है कि भाजपा का वोटर मौन है और सपा का मुखर. यह स्थिति सपा को खुश करने वाली नहीं है. क्योंकि 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय भी पहले दो चरणों के मतदान के बाद भाजपा का वोटर चुप साध गया था. साथ ही सपा का वोकल हो गया था. इस बड़बोलेपन के चलते ही सपा की बाजी पलट गई थी. लेकिन सपा कार्यकर्त्ताओं की मांग थी कि पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव खुद कन्नौज से चुनाव लड़ें. वे इसी दबाव के चलते प्रत्याशी बने.
कयास प्रियंका के लगे थे
कुछ ऐसा ही दबाव राहुल पर कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं का पड़ा. जबकि केरल की वायनाड सीट ही उनकी वरीयता में था और देश में उत्तर-दक्षिण का विवाद पैदा करने के पीछे कर्नाटक की कांग्रेस पार्टी आगे रही. जब 2019 में राहुल गांधी अमेठी से चुनाव हारे थे तब उन्होंने हिंदी पट्टी को बेपढ़ा-लिखा बताया था. यही नहीं वे 2019 की हार के बाद अमेठी पलटे भी नहीं. लेकिन अचानक 2024 चुनाव में अमेठी और रायबरेली के प्रति उनका यह मोह कहीं न कहीं वायनाड में उनकी जीत की पुख्ता गारंटी नहीं दे रहा. उनके विरुद्ध वहां लड़ रहीं सीपीआई की एनी राजा की केरल की जनता के बीच पैठ और वहां हुई कम वोटिंग से भी कांग्रेस डरी हुई थी. वर्ना जो राहुल अमेठी या रायबरेली से चुनाव न लड़ने की कसम खाए थे, वे अचानक रायबरेली क्यों पहुंच गए. जबकि महज दो महीने पहले तक यहां से प्रियंका गांधी के चुनाव लड़ने के कयास लगाये जा रहे थे.
वायनाड से जीते तो क्या रायबरेली छोड़ देंगे राहुल
राहुल गांधी को पार्टी ने इन संभावित खतरों के बारे में आगाह किया तब आखिरी दिन वे अचानक रायबरेली पहुंचे. साथ ही अमेठी से किशोरी लाल की टिकट फाइनल किया. लेकिन कांग्रेस को अभी भी उत्तर प्रदेश से बहुत आस नहीं है. कांग्रेस की प्रदेश कमेटी को सिर्फ रायबरेली सीट ही पुख्ता नजर आती है. वह भी इसलिए कि अभी तक कांग्रेस रायबरेली से सिर्फ 1977, 1996 और 1998 में ही हारी है. इस लोकसभा क्षेत्र को गांधी परिवार की पक्की सीट माना जाता है. फिरोज गांधी, इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी की यह पारिवारिक सीट रही है. इसलिए कांग्रेस पार्टी यहां से गांधी परिवार के वारिस को ही लड़ाना चाहती थी. राहुल गांधी के वहां पहुंच जाने से लोगों में यह संदेश बना रहेगा कि रायबरेली से इंदिरा गांधी परिवार का ही कोई सदस्य लड़ेगा. अब राहुल गांधी यदि वायनाड और रायबरेली दोनों से जीते तब वे क्या फैसला करेंगे, इस पर भी चर्चा शुरू हो गई है.
सारे यादव उम्मीदवार परिवार से
अचानक दो चरणों के मतदान के बाद अखिलेश और राहुल की यह पहल इंडिया और एनडीए गठबंधन दोनों में चुकाने वाली है. सूत्रों की मानें तो 19 और 26 अप्रैल को हुई वोटिंग भाजपा के लिए बहुत उत्साहवर्धक नहीं रही. इसके कारण भाजपा कार्यकर्त्ताओं ने चुप साधी और इंडिया गठबंधन में सपा समर्थक उत्साहित हुए. इस अति उत्साह के चलते सपा समर्थकों का दावा है, कि अखिलेश यादव के कन्नौज सीट पर लड़ने से परिवार के सभी पांचों सदस्यों के जीतने की गारंटी मिलेगी. मैनपुरी से डिंपल यादव, बदायूं से चाचा शिवपाल के बेटे आदित्य यादव, फिरोजाबाद से रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव तथा आज़मगढ़ से धर्मेंद्र यादव के प्रति मतदाता उत्साहित होंगे. सपा ने कुल पांच यादव उम्मीदवार उतारे हैं और वे सभी सुप्रीमो के परिवार से हैं. जबकि बसपा ने चार यादव प्रत्याशी उतारे हैं. एक यादव प्रत्याशी शिव प्रसाद यादव तो मैनपुरी से डिंपल के विरुद्ध मैदान में है.
चाबी कुर्मियों के पास
पडरौना से पीलीभीत तक 50-55 सीटें ऐसी हैं, जहां निर्णायक कुर्मी समाज है. इनको साधने के लिए भाजपा ने बहुत सधे हुए कदम उठाए हैं. एक कुर्मी बहुल सीट पीलीभीत में मतदान 19 अप्रैल को हो चुका है. पहली बार भाजपा ने वहां कुर्मी संतोष गंगवार का टिकट काट कर जितिन प्रसाद को टिकट दिया था. यह भी खबरें उड़ी थीं कि संतोष गंगवार सपा के कुर्मी प्रत्याशी भगवत शरण गंगवार को परोक्ष रूप से समर्थन कर रहे हैं. हालांकि 2014 और 2019 में कुर्मी समाज ने भाजपा को सपोर्ट किया था. ओबीसी समाज में लोध के बाद कुर्मी भाजपा का बड़ा वोटबैंक रहा है. यदि इस बार भी कुर्मी समाज यथावत रहा तो भाजपा का अपर हैंड रहेगा. शायद इसी मिथक को तोड़ने के लिए अखिलेश यादव भी कुर्मियों पर अपने पिता जैसी पकड़ बनाए रखना चाहते हैं. इसलिए उनका लड़ना जरूरी था.