दिल्ली: लोकसभा चुनाव की तैयारियां जोर शोर से चल रही है और सभी पार्टियां इसमें पूरा दमखम लगाने में लगी हुई है. चुनावी योद्दा मैदान में जीत की ताल ठोकने के लिए तैयार हैं. कई बड़े नेता एक के बजाए दो लोकसभा सीटों से चुनावी मैदान में उतर रहे हैं. इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने ‘पारिवारिक सीट’ अमेठी के अलावा केरल में वायनाड लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की घोषणा की है.
यह पहला मौका नहीं जब कांग्रेस या किसी पार्टी का कोई उम्मीदवार एक सीट से अधीक पर चुनाव लड़ रहा हो. अतीत के पन्नों में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे. पिछले चुनाव की ही बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद वाराणसी के अलावा वड़ोदरा लोकसभा सीट से चुनाव लड़े थे. थोड़ा और पीछे जाएं तो कुछ नेताओं ने तो 1996 तक तीन-तीन सीटों पर भी एकसाथ चुनाव लड़ा है. ऐसा इसलिए होता था क्योंकि पहले कोई भी उम्मीदवार कितनी भी सीटों से चुनाव लड़ सकता था लेकिन 1996 में नियम में संशोधन कर एक उम्मीदवार के अधिकतम दो जगहों से चुनाव लड़ सकने की मंजूरी दी गई है.
संशोधन के बाद एक उम्मीदवार दो सीटों पर ही चुनाव लड़ सकता है.अगर वह दोनों सीटों पर जीत जाता है तो उसे एक सीट छोड़नी होती है, जिसपर बाद में फिर से उपचुनाव कराया जाता है. यह सब जनप्रतिनिधित्व कानून 33 (7) के तहत होता है.
एक से अधीक सीटों पर चुनाव लड़ने को लेकर क्या नियम है ? इसको लेकर क्यों बार-बार विवाद होता रहा है ? क्या है जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 33 (7).
पहले जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 33 के मुताबिक एक उम्मीदवार एक से ज्यादा कितनी भी सीटों पर चुनाव लड़ सकता था. बाद में इसको लेकर जब सवाल उठने लगे तो साल 1996 में धारा 33 में संशोधन किया गया. इसके बाद घारा 33 (7) के अनुसार कोई भी उम्मीदवार केवल दो सीटों पर ही चुनाव एक साथ लड़ सकता है. अगर वह दोनों सीटों पर जीतता या जीतती है तो नतीजे आने के 10 दिन बाद उसे एक सीट खाली कर देनी होती है.
इस नियम पर कई बार सवाल उठे हैं
इस नियम पर कई बार सवाल उठे हैं. क्या एक उम्मीदवार को एक से ज्यादा सीटों से चुनाव लड़ाया जाना सही है. इसको लेकर सबके अपने-अपने मत हैं. हालांकि कई लोगों का कहना है कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है.
हाल में ही सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी.याचिका में कहा गया था कि दो सीटों पर जीतने की स्थिति पर उम्मीदवार को एक सीट खाली करनी पड़ती है. लिहाजा उस सीट पर दोबारा चुनाव होता है, इससे सरकार को राजस्व का नुकसान होता है इसलिए नियम में फिर से संशोधन किया जाए और एक उम्मीदवार को एक सीट से ही चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए.
इस याचिका का जहां एक तरफ चुनाव आयोग ने समर्थन किया था. वहीं सरकार इस याचिका और 33 (7) में संशोधन के विरोध में थी. सरकार ने कहा था कि अगर 33 (7) में संशोधन किया जाता है तो इसमें उम्मीदवारों के अधिकारों का उल्लंघन होगा.
चुनाव आयोग ने भी दिया था संशोधन का प्रस्ताव
चुनाव आयोग ने साल 2004 में धारा 33 (7) में संशोधन का प्रस्ताव दिया था. हालांकि चुनाव आयोग ने कहा था कि अगर मौजूदा प्रावधानों को बनाए रखते हैं तो दो सीटों से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को जीत के बाद खाली किए गए सीट पर होने वाले उपचुनाव का खर्च वहन करना चाहिए. चुनाव आयोग ने कहा है कि राज्य विधानसभा के लिए उपचुनाव कराने में 5 लाख रुपये और आम चुनाव के लिए 10 लाख रुपतक खर्च की राशि हो सकती है. ‘ इससे पहले भी 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट और 1999 में “चुनावी सुधार” पर विधि आयोग की 170 वीं रिपोर्ट में एक सीट पर एक प्रतियोगी को प्रतिबंधित करने की सिफारिशें शामिल थीं.
उम्मीदवारों को एक से अधिक सीटों से चुनाव लड़ने से क्यों रोका जाना चाहिए? इसको लेकर कहा जाता है कि लोकतंत्र की प्रणाली एक व्यक्ति, एक वोट और एक उम्मीदवार के कॉनसेप्ट पर चलती है.
पहले भी कई उम्मीदवारों ने लड़े हैं एक से ज्यादा सीटों से चुनाव
1957 के लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनसंघ राजनीति में बढ़ने की कोशिश कर रहा था, तब अटल बिहारी वाजपेयी ने यूपी के तीन निर्वाचन क्षेत्रों ( बलरामपुर, मथुरा और लखनऊ) से अपना भाग्य आजमाया था. इसके बाद भी कांग्रेस में भी यह सिलसिला जारी रहा. 1977 में जब अपने ही गढ़ रायबरेली में इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं तो 1980 के चुनाव में वह रायबरेली के अलावा तेलंगाना मेडक से भी चुनाव लड़ा था. वह दोनों जगहों से चुनाव जीती थीं और बाद में मेडक की सीट छोड़ दी थी.
इसे बाद भी एक सीट से ज्यादा पर लड़ने का सिलसिला जारी रहा. 1991 में बाजपेयी विदिशा और लखनऊ से, 1991 में ही लाल कृष्ण आडवाणी नई दिल्ली और गुजरात के गांधीनगर से, 1999 में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी बेल्लारी और अमेठी से, 2014 में मुलायम सिंह आजमगढ़ और मैनपुरी से, आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव 2009 में सारन और पाटलीपुत्र से चुनाव लड़े थे.
क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने भी कई बार एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा है. तेलुगु देशम पार्टी के संस्थापक एन टी रामाराव ने 1985 के विधानसभा चुनावों में गुडीवाड़ा, हिंदूपुर और नलगोंडा – तीन सीटों पर चुनाव लड़ा, सभी में जीत हासिल की, हिंदूपुर को बरकरार रखा और अन्य दो को खाली कर दिया, वहां उपचुनाव हुए. 1991 में, हरियाणा के उप-मुख्यमंत्री देवीलाल ने तीन लोकसभा सीटों ( सीकर, रोहतक और फ़िरोज़पुर) साथ ही घिरई विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा. वह हर जगह से हार गए थे.
बता दें कि इस बार 11 अप्रैल को पहले चरण के लिए वोट डाले जाएंगे, जबकि 19 मई को सातवें चरण के लिए वोट डाले जाएंगे. मतों की गिनती 23 मई को होगी. लोकसभा के साथ ही ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और आंध्र प्रदेश विधानसभा के चुनाव भी होंगे.