दिल्ली में लोकसभा चुनावों के लिए आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच होने वाले गठबंधन की अटकलें अब ख़त्म हो गई हैं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ बैठक के बाद प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित ने साफ़ कर दिया है कि कांग्रेस ने दिल्ली में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. बता दें कि शीला दीक्षित पहले से ही अकेले चुनाव लड़ने के पक्ष में थीं और कई बार सार्वजनकि रूप से कहती रही थीं कि कांग्रेस को अकेले ही चुनाव लड़ना चाहिए. वहीं आप ने पहले ही लोकसभा चुनावों के लिए अपने 6 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी थी.
दोनों पार्टी के एक साथ ना आने की क्या रही है वजह:
1. अकेले लड़ने के पक्ष में शीला
दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष शीला दीक्षित ने हाल के कई बयानों में कहा था कि कांग्रेस दिल्ली में अकेले चुनाव लड़ेगी. पार्टी कार्यकर्ता और नेता भी अकेले चुनाव लड़ने की ही वकालत कर रहे थे, लेकिन आप की तरफ से लगातार दबाव बनाया जा रहा था कि गठबंधन न होने से बीजेपी को फायदा है. बहरहाल कांग्रेस के एक धड़े का स्पष्ट मानना था कि आप अपने नुकसान को कम करने के लिए कांग्रेस का सहारा चाहती है और इसलिए ही कांग्रेस को अकेले लड़कर अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहिए. सूत्रों के अनुसार आप ने ये भी ऑफ़र दिया था कि दिल्ली के साथ-साथ पंजाब में भी कांग्रेस के साथ गठबंधन किया जा सकता है, जिसके तहत 13 सीटों में से आप ने 4 सीटों पर लड़ने की इच्छा जताई है और बाकी सीटें उसने कांग्रेस के लिए छोड़ने का प्रस्ताव दिया था. बता दें कि दिल्ली में आप के साथ गठबंधन को लेकर कांग्रेस में दो खेमे बन गए थे. एक खेमा आप के साथ गठबंधन के पक्ष में था, जबकि एक बड़ा खेमा आप के साथ गठबंधन नहीं करना चाहता था.
2. फंस रहा था सीटों पर पेंच
आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में सबसे बड़ा पेंच उम्मीदवारों को लेकर भी था. कांग्रेस में अजय माकन, शीला दीक्षित, कपिल सिब्बल, संदीप दीक्षित, जय प्रकाश अग्रवाल, शर्मिष्ठा मुखर्जी, महाबल मिश्रा, मीरा कुमार (बिहार से भी चुनाव लड़ चुकी हैं) जैसे प्रमुख चेहरे हैं. वहीं आम आदमी पार्टी छह सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है. आप ने नई दिल्ली संसदीय सीट से बृजेश गोयल को कैंडिडेट बनाया है. ईस्ट दिल्ली से आतिशी मर्लिना, नॉर्थ ईस्ट दिल्ली से दिलीप पांडेय, साउथ दिल्ली से राघव चड्ढा, चांदनी चौक से पंकज गुप्ता और नॉर्थ वेस्ट दिल्ली से गुगन सिंह को उम्मीदवार बनाया है. अब अगर गठबंधन होता तो साफ था कि आप के तीन उम्मीदवारों के टिकट कटेंगे. वहीं नई दिल्ली जैसी सीट पर आप और कांग्रेस के बीच लगातार तकरार की स्थिति बनी हुई थी.
3. घाटे में केजरीवाल
बता दें कि आम आदमी पार्टी कई मौकों पर कह चुकी हैं कि वह मोदी को हराने और बीजेपी को हटाने के लिए सब कुछ भूलकर दिल्ली में कांग्रेस से गठबंधन को तैयार है. जानकारों का मानना है कि इस डील में आप का दूरगामी नुकसान होता नज़र आ रहा था इसलिए वो 5-2 के फ़ॉर्मूले का प्रस्ताव लायी थी जिसे बाद में 4-3 कर दिया गया था. हालांकि एक प्रस्ताव 3-3 और 1 का भी था. बता दें कि करप्शन के खिलाफ जिस ‘परसेप्शन वार’ का फायदा उसे 2015 कांग्रेस-बीजेपी के खिलाफ मिला था वो कांग्रेस के साथ आने पर सवालों के घेरे में आ रहा था. कांग्रेस विरोध की सीढ़ी पर चढ़कर ही सीएम केजरीवाल ने राजनीतिक जमीन तैयार की उसी जमीन पर जब वो कांग्रेस के साथ आते तो मोदी और राहुल दोनों के ही मुकाबले उनकी छवि को बड़ा नुकसान पहुंचता
4. राहुल को फायदा
दूसरी तरफ राहुल अगर आप को गठबंधन के लिए मना लेते तो दिल्ली में उनकी कद्दावर नेता शीला दीक्षित के साथ-साथ पार्टी की भी छवि भी अपने आप ही बहाल हो जाती. जिस पार्टी ने शीला को करप्शन के आरोपों के दम पर सत्ता से बहार किया था वही उसके साथ चुनावी प्रचार करती नज़र आती. इसके अलावा 2015 में कांग्रेस का जो वोटबैंक आप के खाते में गया था उसका भी बड़ा हिस्सा वापस लौट सकता था, इसका सीधा नुकसान केजरीवाल को जबकि फायदा राहुल को होना था. इसके साथ-साथ लोकसभा चुनावों में करो या मरो की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस को दिल्ली के साथ-साथ पंजाब और हरियाणा में गठबंधन का मजबूत साथी मिल रहा है. ज़मीन पर कमजोर संगठन की शिकार कांग्रेस को इस डील के बाद 2019 लोकसभा चुनावों में आप के अपेक्षाकृत काफी मजबूत संगठन और कार्यकर्ताओं का फ्कायदा मिल सकता है.
5. बीजेपी भी फायदे में
बता दे कि प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष और सांसद मनोज तिवारी लगातार ये कह रहे है कि कांग्रेस-आप के साथ आने से दिल्ली में उनकी सात सीटें फिर से पक्की हो रही हैं. बीजेपी का मानना है कि इस गठबंधन से ‘आप’ का एकमात्र मुद्दा करप्शन से लड़ाई भी ख़त्म हो जाएगा और कांग्रेस के दाग उसके दामन का भी हिस्सा बन जाते. उधर बीजेपी आईटी सेल सोशल मीडिया पर पहले ही इस गठबंधन को लेकर केजरीवाल के खिलाफ माहौल बनाने के लिए तैयार बैठा था. ऐसे में इसका सीधा नुकसान आप की छवि को हो रहा था और कांग्रेस के पास दिल्ली में खोने के लिए फिलहाल कुछ है नहीं इसलिए उसने गठबंधन को लेकर कोई सक्रियता नहीं दिखाई.
‘आप’ क्यों आना चाहती थी साथ?
बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सातों सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी. हालांकि 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में आप ने 70 में से 67 सीटें हासिल कर सबको चौंका दिया था और बीजेपी तीन पर सिमट गई जबकि कांग्रेस का तो खाता ही नहीं खुला था. बहरहाल जानकारों का मानना है कि लोकसभा और विधानसभा में वोटर्स का रुझान और मुद्दे काफी अलग होते हैं, यहां केजरीवाल की चुनौती किरण बेदी नहीं हैं बल्कि उनका सामना सीधे पीएम मोदी से होने वाला है. ऐसे में राहुल और केजरीवाल के साथ-साथ देश भर में बीजेपी के खिलाफ बन रहे गठबंधन से जुड़ी क्षेत्रीय पार्टियों के नेता भी नहीं चाहते थे कि बीजेपी के खिलाफ अलग-अलग लड़कर नुकसान उठाया जाए.
इसके पीछे वोट प्रतिशत और सीटों का गणित भी है. दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव में सभी सीटों पर बीजेपी ने कब्जा जमाया था. वहीं वोट प्रतिशत पर नजर डालें तो बीजेपी पर 46.6 प्रतिशत मतदाताओं ने भरोसा जताया था. कांग्रेस को 15.2 प्रतिशत, आम आदमी पार्टी (आप) को 33.1 प्रतिशत वोट मिले थे. अब अगर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 48.3 प्रतिशत पर पहुंच जाएगा. संसदीय क्षेत्रों के हिसाब से देखें तो बीजेपी-आम आदमी पार्टी पश्चिमी दिल्ली को छोड़ कर छह क्षेत्रों में बीजेपी से आगे है. वहीं कांग्रेस और आप को वोटों को अलग-अलग कर दिया जाए तो बीजेपी के आगे दोनों पार्टियां कहीं नहीं ठहरती है. ज्यादातर चुनावी सर्वे में यह दावा किया गया है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन करने की स्थिति में सभी सात सीटें जीत सकती है.