एक अंग्रेज दार्शनिक ने लिखा था कि “दुनिया में कुछ ऐसे भी लोग पैदा होते हैं, जिनसे आप प्रेम या नफ़रत भले ही न करें लेकिन उनकी उपेक्षा भी नहीं कर सकते.” भारत की बात करें, तो इस दर्शन के लिहाज से पहला नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही आता है लेकिन हैरानी ये है कि इसमें दूसरे नंबर पर आरएसएस यानी संघ प्रमुख मोहन भागवत को ही गिना जा रहा है. शायद इसलिए कि वे बेहद मुखर हैं और उन्होंने हिंदुत्व के अलावा भी हर ज्वलंत मुद्दे पर बेबाकी से अपनी राय को सार्वजनिक करते हुए ये जताने की कोशिश की है कि संघ प्रमुख सिर्फ आरएसएस से जुड़े लोगों का ही नहीं होता है बल्कि वह भारत की विचारधारा को प्रसारित-प्रचारित करने वाला एक महत्वपूर्ण स्तंभ भी है.
बेशक पिछले आठ साल में ऐसा हो भी चुका है, लेकिन एक जमाना वो भी था जब आरएसएस के सर संघचालक के उद्बोधन को सुनने के लिए देशभर के स्वयंसेवक विजयादशमी का इंतज़ार किया करते थे क्योंकि उनका दिया भाषण ही पूरे साल भर उन सबके लिए दिशा-निर्देश हुआ करता था कि उन्हें किस राह पर आगे बढ़ना है. इस सच को भी कोई नहीं झुठला सकता कि उस वक़्त के संघ प्रमुख सुरक्षा घेरे में घिरे रहने को अपना अपमान समझते थे और संघ के कार्यक्रम के सिवा किसी औऱ मंच पर जाकर अपनी बात कहने से कतराते थे. भागवत से पहले संघ की कमान संभाल चुके कुप्प सीता रमैय्या सुदर्शन यानी के एस सुदर्शन ने संघ के मंचों के अलावा कभी, कहीं कोई ऐसा बयान नहीं दिया, जिस पर देश में कोई विवाद उत्पन्न हो जाये.
लेकिन कहते हैं कि जमाना बदलने के साथ राजनीति भी बदलती है और फिर सत्ता में आने वाली पार्टी से जुड़े संगठनों के तेवर भी बदलते हुए दिखाई देते हैं. इस सच से भला कौन इनकार करेगा कि 42 साल पैदा हुई बीजेपी का “भाग्यविधाता” आज भी संघ ही है और आगे भी रहेगा. इसलिए कि जिस दिन संघ ने बीजेपी के सिर पर रखा अपना हाथ हटा लिया, उस दिन उसकी हालत कांग्रेस से कोई ज्यादा बेहतर नहीं होगी.
लेकिन देश के बदलते हालातों ने संघ प्रमुख को अब अपने स्वयंसेवकों से बहुत दूर कर दिया है, इसलिए कि अब उनके आसपास ज़ेड प्लस सिक्योरिटी का इतना बड़ा घेरा है कि वहां कोई फटक भी नहीं सकता. जबकि संघ का मूल वाक्य है कि सुरक्षा की जरूरत नेताओं को होती है, संघ के किसी स्वयंसेवक या पदाधिकारी को नहीं.अब ये तो भागवत ही बेहतर जानते होंगे कि उन्होंने सिक्युरिटी के इतने बड़े तामझाम को आखिर क्यों स्वीकार किया.
संघ का इतिहास बताता है कि पेशे से पशु चिकित्सक रहे मोहन भागवत संघ के सर संघचालक बनने वाले सबसे कम उम्र के व्यक्ति हैं. 21 मार्च 2009 को जब वे सरसंघचालक मनोनीत हुए थे, तब उनकी उम्र महज़ 59 साल थी, जो संघ की परंपरा के अनुसार बेहद कम था. ज़ाहिर है कि वे अविवाहित और उन्हें एक स्पष्टवादी, व्यावहारिक और दलगत राजनीति से संघ को दूर रखने के एक स्पष्ट दृष्टिकोण के लिये जाना जाता है.
फिलहाल भागवत अपने बयानों से इसलिये मीडिया में छाए रहते हैं क्योंकि कभी तो वे उग्रवादी हिंदु ताकतों को ये नसीहत देते हैं कि हर मस्जिद में भला शिवलिंग क्यों तलाशना चाहिए? तो कभी वो ये संदेश देने से भी गुरेज़ नहीं करते कि सिर्फ खाना और आबादी बढ़ाने का काम तो जानवर भी करते हैं. फिर इंसान और जानवर में फर्क ही क्या रहा.
दरअसल, भागवत बुधवार को कर्नाटक के चिकबल्लापुरा जिले (Chikballapura District) के मुद्देनहल्ली में सत्य साईं ग्राम स्थित श्री सत्य साईं यूनिवर्सिटी फॉर ह्यूमन एक्सीलेंस (Sri Sathya Sai University For Human Excellence) के पहले दीक्षांत समारोह में शामिल हुए थे. वहां उन्होंने बढ़ती जनसंख्या से लेकर धर्म परिवर्तन के बारे में छिड़ी बहस को लेकर इशारों में ही बहुत कुछ कह दिया. लेकिन भागवत ने जो कुछ कहा है, उसके बेहद गहरे मायने हैं जिन्हें समझना होगा. वह इसलिये कि अब तक के सारे संघ प्रमुख अपने संदेश को सांकेतिक भाषा के जरिये ही अपने स्वयंसेवकों तक पहुंचाते रहे हैं.
हालांकि उस समारोह में भागवत ने थोड़े साफ शब्दों में कहा कि “सिर्फ जिंदा रहना ही जिंदगी का उदेश्य नहीं होना चाहिए. मनुष्य के कई कर्तव्य होते हैं, जिनका निर्वाहन उन्हें समय-समय पर करते रहना चाहिए. सिर्फ खाना और आबादी बढ़ाना, ये काम तो जानवर भी कर सकते हैं. शक्तिशाली ही जिंदा रहेगा, ये जंगल का नियम है. वहीं शक्तिशाली जब दूसरों की रक्षा करने लगे, ये मनुष्य की निशानी है.”
गौर करने वाली बात ये है कि बीते सोमवार को विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुस्लिमों का जिक्र किये बगैर ये कहा था कि एक खास वर्ग में आबादी बढ़ने की रफ़्तार और उनकी जनसंख्या का प्रतिशत समाज में अव्यवस्था और अराजकता को पैदा करता है, लिहाज़ा उस पर भी नियंत्रण करना जरूरी है. भागवत के इस ताजा बयान को उसी संदर्भ से भी जोड़कर देखा जा रहा है.
हालांकि भागवत ने इसी समारोह में एक और मुद्दे को भी उठाया, जो पिछले कई वर्षों से संघ के एजेंडे में सबसे ऊपर माना जाता है. धर्म परिवर्तन रोकने पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि यह लोगों को उनकी जड़ों से अलग कर देता है. गौरतलब है कि इस कार्यक्रम में दलित और पिछड़ा वर्ग समुदायों के बहुत सारे संत भी शामिल हुए थे. उनके संगठन द्वारा जारी एक बयान में आरएसएस के सरसंघचालक के हवाले से कहा गया है कि “धर्म परिवर्तन अलगाववाद की तरफ ले जाता है. धर्मांतरण व्यक्ति को जड़ों से अलग करता है. इसलिए, हमें धर्म परिवर्तन को रोकने की कोशिश करनी चाहिए.”
भागवत को एक दकियानूसी नहीं बल्कि आधुनिक व वैज्ञानिक सोच रखने वाला हिन्दू समझा जाता है, इसलिये वे हिंदू धर्म में छाई कुछ रूढ़िवादी परंपराओं पर चोट करने में भी कोई कंजूसी नहीं बरतते. भागवत के मुताबिक “अगर हम चाहते हैं कि भारत, भारत के रूप में बना रहे, तो हमें वह होना चाहिए जो हम (सांस्कृतिक रूप से) हैं, नहीं तो भारत, भारत नहीं रहेगा. इसलिए, हमें यह यकीन करना होगा कि ’धर्म’ हर जगह हो. हिन्दू समाज में जो समस्याएं हैं वे छुआछूत और गैरबराबरी हैं, जो सिर्फ मन के अंदर है, धार्मिक शास्त्रों में नहीं. कई सदियों से हमारे दिमाग में मौजूद इस समस्या को हल करने में वक्त लग सकता है. इस मुद्दे का समाधान खोजने की जरूरत है. यह निश्चित रूप से एक दिन होगा और हम इस पर काम कर रहे हैं. तब तक हमें धैर्य रखना चाहिए.’’
भागवत के इस बयान का एक बड़ा मतलब तो यहीं निकलता है कि संघ बेहद खामोशी से सवर्णों और दलितों के बीच सदियों से चली आ रही खाई को पाटने का काम कर रहा है. लेकिन सवाल ये है कि इसकी जमीनी हक़ीक़त कब देखने को मिलेगी?