अंग्रेजों को जातिगत जनगणना बंद करने के लिए कांग्रेस के नेताओं ने ही राजी किया था, जिन्हें डर था कि धर्म के नाम पर बंटने के बाद कहीं जातियों में देश ना बंट जाए. 1990 में जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हो रही थी, तब राजीव गांधी विपक्ष के नेता थे. उन्होंने ओबीसी आरक्षण का संसद में विरोध किया, जबकि कांग्रेस के ही नेता उन्हें समझा रहे थे कि इससे कांग्रेस पार्टी को बहुत नुकसान होगा. हुआ भी यही. मंडल बनाम कमंडल की राजनीति का केंद्र बने यूपी और बिहार में कांग्रेस के पास खोने के लिए भी कुछ नहीं बचा. फिर सब कुछ गंवाने के बाद अचानक राहुल गांधी ने अपने परनाना, दादी और पिता से अलग रास्ता क्यों पकड़ा?
16 अप्रैल 2023 को कर्नाटक के कोलार में भारत जोड़ो यात्रा से ब्रेक लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी कर्नाटक में चुनाव प्रचार करने पहुंचे. वहीं चुनावी मंच से राहुल गांधी ने कुछ ऐसा कहा, जो कांग्रेस के लिए भी अजूबा था. कोलार में ही राहुल गांधी ने मोदी सरनेम पर विवादित टिप्पणी की थी, जिसे बीजेपी ने ओबीसी के अपमान से जोड़ दिया था. माना गया कि कोलार में ओबीसी और जातिगत जनगणना की पैरवी करके राहुल ये दिखाना चाहते हैं कि वो ओबीसी के विरोधी नहीं हैं. इसके बाद राहुल गांधी दिल्ली में युवाओं के बीच समझाने लगे कि जातिगत जनगणना क्यों ज़रूरी है.
राहुल गांधी जिस जातिगत जनगणना की पैरवी कर रहे थे, उसे जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकारों ने क्यों नहीं कराया, इसका जवाब राहुल गांधी ने नहीं दिया. कांग्रेस के दूसरे नेता और प्रवक्ता भी कास्ट सेंसस रोकने की वजह नहीं बल्कि सिर्फ उसे जारी करने की जरूरत ही समझाते रहे.
जातिगत जनगणना क्यों बंद हुई, इसकी कहानी भी जान लीजिए
देश में धर्म के नाम पर बंटवारे की जो मुहिम मुस्लिम लीग ने शुरू की थी, उसका समर्थन हिंदू महासभा भी करने लगी. मुस्लिम लीग ने जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस और बंगाल को अलग मुस्लिम देश बनाने की जिद पकड़ ली थी. इसी बीच बिहार में त्रिवेणी संघ के नाम पर यादव, कोइरी और कुर्मी जातियों का गठबंधन भी राजनीतिक हलचल बढ़ाए हुए था.
जाति की आबादी के आधार पर राजनीतिक दबदबे की लड़ाई में कांग्रेस को बड़े खतरे की आहट सुनाई दी. देश में जातियों का टकराव पहले से था और अब डर ये सताने लगा कि कहीं धर्म के बाद देश में जातियों के आधार पर बंटवारे की आग भड़क गई तो क्या होगा? ब्रिटिश सरकार भी जातिगत जनगणना से परेशान थी, क्योंकि भारत में जातियों का जाल बहुत उलझा हुआ था. एक बड़ा विवाद ये था कि भारत में जनगणना का आधार जाति होगी या वर्ण.
इंदिरा गांधी की सरकार ने भी जातिगत जनगणना नहीं कराई
आज़ादी के बाद कांग्रेस की सरकार ने भी जातिगत जनगणना नहीं कराई तो इस बात पर राजनीति शुरू हो गई कि एससी और एसटी के अलावा भी देश में कई पिछड़ी जातियां हैं, जिनकी सामाजिक और आर्थिक हालत बहुत खराब है. नेहरू सरकार ने 1953 में पिछड़ी जातियों की हालत जानने के लिए गांधीवादी नेता काका कालेलकर की अध्यक्षता में आयोग बना दिया, लेकिन कालेलकर आयोग की जो रिपोर्ट 1955 में आ गई थी, उस पर कोई फैसला नहीं हुआ. ये बहस गर्म हो गई कि पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिया जाए या फिर आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को.
नेहरू के बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने भी जातिगत जनगणना नहीं कराई. मंडल आयोग की रिपोर्ट भी इंदिरा गांधी सरकार को ही सौंपी गई थी, जिन्होंने उस रिपोर्ट को ना तो खारिज किया और ना ही लागू किया. इंदिरा को लगता था कि इससे जातिवाद की राजनीति होगी. हालांकि जातिवाद के आरोपों में कांग्रेस खुद भी जकड़ी हुई थी. इंदिरा युग के कांग्रेस पर आरोप था कि वो अगड़ी जातियों की पार्टी है और इसी आरोप की वजह से यूपी और बिहार जैसे राज्यों में ओबीसी वोटर कांग्रेस से दूर खिसक चुके थे.
कांग्रेस के क्षेत्रीय छत्रप
कांग्रेस का जनाधार शुरू से सवर्ण, मुस्लिम, दलित और आदिवासी तबके में ही रहा है, लेकिन आज की तारीख में सब खिसक चुके हैं. कांग्रेस के क्षेत्रीय छत्रपों की बात करें तो राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और कर्नाटक में सिद्दारमैया बड़े जनाधार वाले ये तीनों नेता पिछड़ी जातियों के हैं. कांग्रेस का जिन पार्टियों से गठबंधन है, उनमें डीएमके, आरजेडी और जेडीयू की पहचान ओबीसी राजनीति की वजह से ही है. ऐसे में अगर राहुल गांधी ओबीसी की तरफदारी में जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं, तो मतलब समझना इतना मुश्किल भी नहीं है.