राहुल गांधी रायबरेली सीट पर लोकसभा सदस्य बने रहेंगे. उन्होंने केरल की वायनाड सीट छोड़ने का फैसला किया है. उनकी पार्टी भी इस फैसले से एकमत है. कांग्रेस पार्टी ने यह भी तय किया है कि भविष्य में जब वायनाड लोकसभा सीट पर उपचुनाव होगा, तब प्रियंका गांधी वहां से चुनाव लड़ेंगी. राहुल का यह फैसला कांग्रेस की दूरगामी रणनीति को स्पष्ट करता है. 2009 के बाद पहली बार कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में उत्साहजनक सफलता पाई है. वह 17 सीटों पर चुनाव लड़ी और छह पर जीत दर्ज की.
यह कांग्रेस द्वारा अन्य विपक्षी दलों के साथ इंडिया गठबंधन बना लेने का नतीजा है. उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन के दूसरे दल समाजवादी पार्टी ने 37 सीटें जीतीं. उसने 62 सीटों पर चुनाव लड़ा था. उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से एक मिर्जापुर से तृणमूल कांग्रेस का प्रत्याशी लड़ा था. उसकी हार भी बहुत कम वोटों से हुई.
यूपी में बीजेपी का गुब्बारा फोड़ा
इंडिया ब्लॉक की इस सफलता से यह साफ हो गया कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी का प्रभाव तेजी से कम हो रहा है. वहां बीजेपी को मात्र 33 सीटों से संतोष करना पड़ा. और तो और फैजाबाद लोकसभा सीट, जहां की अयोध्या विधानसभा सीट के क्षेत्र में चार महीने पहले रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हुई थी, वहां भी बीजेपी को बुरी तरह हार का मुंह देखना पड़ा.
इसलिए इंडिया गठबंधन समझ रहा है कि वह वहां मैदान में डटे रहे तो तीन साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी अपना दस साल पुराना राज खो देगी. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने जिस तरह से माइक्रो स्तर पर जा कर प्रत्याशी उतारे और रणनीति बनाई, उससे बीजेपी का सारा चुनावी कौशल धड़ाम हो गया. राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जमीनी स्तर पर जा कर की गई मेहनत से ऐसा संभव हो सका.
केरल में भी गांधी परिवार रहेगा
राहुल गांधी ने रायबरेली सीट जीती तो उनकी ही पार्टी के किशोरी लाल शर्मा ने अमेठी जीत ली. जबकि किशोरी लाल बहुत लो प्रोफाइल उम्मीदवार थे. उन्होंने केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को परास्त किया. अमेठी की जीत का श्रेय प्रियंका गांधी को जाता है. इसलिए कांग्रेस को लगता है, कि बीजेपी के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को इंडिया गठबंधन ध्वस्त कर सकता है. विंध्य के पार के भारत में बीजेपी की सांप्रदायिक नीतियां काम नहीं कर पा रही हैं.
पहली बार बीजेपी का केरल में खाता खुल गया है. इसलिए कांग्रेस केरल की वायनाड सीट भी गांधी परिवार के पास रखना चाहती है, ताकि वहां भी सांप्रदायिकता के विरुद्ध माहौल बनाया जा सके. विंध्य के इस पार के भारत में भाजपा ने अपनी जड़ें पुख्ता कर ली हैं. इसलिए कांग्रेस अपना प्रहार यूपी में व्यापक स्तर पर करना चाहती है.
कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ीं
कांग्रेस के उत्तर प्रदेश में प्रवक्ता पंकज श्रीवास्तव कहते हैं, कि उत्तर प्रदेश में 15 साल बाद कांग्रेस ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है. कुल 17 सीटों पर पार्टी लड़ी और छह पर जीती. साथ ही छह सीटों पर उसकी पराजय बहुत कम वोटों से हुई. बांस गांव में कांग्रेस सिर्फ 3150 वोट से हारी. कानपुर में आलोक मिश्रा बीजेपी के रमेश अवस्थी से मात्र 20968 वोटों से हारे.
जहां-जहां भी कांग्रेस 45000 से कम वोटों से हारी है, वहां उसे उम्मीद है कि आगे वह इन सीटों पर बीजेपी को मुश्किलें पैदा कर देगी. रायबरेली, अमेठी, सीतापुर, प्रयागराज, बाराबंकी और सहारनपुर सीटें कांग्रेस को मिलीं. इनमें से 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के पास सिर्फ रायबरेली सीट थी. कांग्रेस अपनी जीत से उत्साहित है और अब यह मान कर चलना चाहिए कि कांग्रेस भविष्य में भाजपा को घेरने की पहला यूपी से ही करेगी.
उपचुनाव में बीजेपी के सामने चुनौतियां
जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक सुनील शुक्ल बताते हैं कि हिंदी पट्टी में राहुल गांधी की सक्रियता बहुत जरूरी है. यहां बीजेपी लगातार बढ़त बनाए हुए है. उसे काउंटर करने के लिए राहुल गांधी अब यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान और हरियाणा को निशाने पर लेंगे. उन्होंने सुदूर दक्षिण में बैलेंस करने के लिए प्रियंका गांधी को वहां लगाया है. उत्तर प्रदेश में तो जल्द ही विधान सभा की दस सीटों पर उपचुनाव होने हैं.
इसलिए भी राहुल और अखिलेश अपना सारा फोकस फिलहाल उत्तर प्रदेश में रखेंगे. उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार के लिए भी यह परीक्षा की घड़ी है. मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ यदि इन सीटों को नहीं बचा पाते हैं तो 2027 में कुछ भी हो सकता है. हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव भी होने हैं. यह भी भाजपा के लिए अग्नि परीक्षा है. यूं भी हरियाणा में लोकसभा की पांच सीटें भाजपा ने गंवा दी हैं. कांग्रेस ने यहां सीटें बीजेपी से छीन लीं.
राहुल ने लिया पुनर्जीवन का संकल्प
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 1989 से सत्ता से बाहर है और लोकसभा चुनाव में भी 2009 को छोड़ कर उसका प्रदर्शन बहुत खराब रहा है. 2004 में उसे 9 सीटें मिली थीं. 2009 में 21 हुईं, 2014 में वह दो पर सिमट गई. 2019 में तो उसे सिर्फ रायबरेली सीट मिली. वहां से सोनिया गांधी चुनाव जीतीं. जबकि बगल की सीट अमेठी राहुल गांधी हार गए, जबकि उस समय राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. हार से हताश राहुल केरल की वायनाड सीट से लोकसभा पहुंचे. मगर 2019 की भीषण पराजय से राहुल गांधी हार कर नहीं बैठे. उन्होंने कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए यात्राएं की. उनका यह प्रयास रंग लाया. कांग्रेस को 99 सीटों तक पहुंचने का श्रेय यदि किसी को है, तो वह राहुल गांधी हैं.
अभिमन्यु की तरह अकेला छोड़ा गया
गांधीवादी विचारक और राजनीति पर प्रखर दृष्टि रखने वाले कनक तिवारी के अनुसार राहुल गांधी ने 2019 की हार के बाद चिंतन किया. उन्होंने पाया कि उन्हें महाभारत के अभिमन्यु की तरह उनके ही पाले के लोगों ने अकेला छोड़ दिया है. तब उन्होंने अपने परिवार की रीति को समझा और अकेले ही कन्याकुमारी से कश्मीर की भारत जोड़ो यात्रा पर निकल पड़े. अपनी पोशाक में सादगी ले कर आए और भाषा में भी. आम लोगों जैसे कपड़े, आम लोगों जैसी भाषा और आम लोगों जैसी ही सादगी.
इससे राहुल गांधी ने पूरे देश में हलचल पैदा कर दी. फिर उन्होंने खुद से झुक कर चुनावी समझौते किए. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल से, पश्चिम बंगाल में तृणमूल से और तमिलनाडु में डीएमके से. झुक कर समझौते करने के पीछे उनकी रणनीति थी. राहुल को अच्छी तरह पता है, कि इनमें से कोई भी दल व्यापक प्रभाव वाला नहीं है. उनका राष्ट्रीय शेयर न के बराबर है.
समझौतों का लाभ कांग्रेस को मिला
उनके अपने-अपने क्षेत्रों में कांग्रेस भले शून्य हो पर देश की 543 सीटों में से प्रत्येक सीट पर कांग्रेस के पास हज़ारों वोट हैं. बस कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों की ओट चाहिए. नतीजा यह है कि आज कांग्रेस महाराष्ट्र और पंजाब में सर्वाधिक सीट संख्या पर खड़ी है. यह कांग्रेस की उल्लेखनीय सफलता है. सत्तारूढ़ बीजेपी के नेता और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राहुल गांधी को बच्चा ही समझते रहे. जबकि इस बीच राहुल ने दूसरी भारत न्याय यात्रा की, जो मणिपुर से मुंबई तक की थी.
राहुल ने लोगों को कांग्रेस को वोट करने को नहीं कहा. बल्कि उन्होंने गरीबी, बेरोजगारी पर चोट की. फिर संविधान को पढ़ने के लिए उकसाया. यहां तक कि 2024 का कांग्रेस पार्टी का घोषणापत्र एक तरह से संविधान की ही कॉपी था. बीजेपी ने इस घोषणा पत्र पर हमला किया. और इस तरह उसने कांग्रेस के घोषणा पत्र को हर आमों-खास तक पहुंचा दिया.
बीजेपी की भूल
बीजेपी यहीं चूक कर गई. कांग्रेस के घोषणा पत्र पर हमला करना एक बड़ी भूल थी. अनजाने में बीजेपी संविधान पर हमला कर बैठी. प्रधानमंत्री के सलाहकार उन्हें सही बात समझा नहीं पाए और खुद प्रधानमंत्री राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी या ममता की क्षमताओं का आकलन करने में भूल कर बैठे. इनमें से तेजस्वी सबसे कमजोर निकले. अखिलेश ने राहुल गांधी से समझौते का पूरा लाभ उठाया. पश्चिम बंगाल में यह लाभ ममता को मिला. कांग्रेस उम्मीदवार अधीर रंजन चौधरी यदि बड़बोला पन न दिखाते तो वहां पर भी ममता और कांग्रेस मिलकर लड़ते. इस तरह राहुल गांधी ने अपनी रणनीतिक कौशल से वह स्थान बना लिया, जो पिछले एक दशक में कांग्रेस गंवा चुकी थी.
इसलिए राहुल का रायबरेली पर डटना इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. संकेत यही हैं, कि आने वाले दिनों में भाजपा को अपने कई प्रदेशों में क्षत्रप बदलने पड़ेंगे तथा राजनीति में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से पीछे हटना पड़ेगा. उसे सीधे-सीधे एक ऐसे अनुदारवादी दल की भूमिका में रहना होगा, जो धर्म की राजनीति नहीं करेगी.