एक बार फिर किसान दिल्ली कूच की तरफ रुख कर चुके हैं. किसानों को दिल्ली में नहीं घुसने को लेकर शंभू बॉर्डर पर पुलिस से उनकी भिड़ंत भी हुई है. हाल के वर्षो में यह दूसरी बार है, जब किसानों ने केंद्र सरकार के खिलाफ हल्ला बोला है. न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) एक ऐसा शब्द है, जो एक बार फिर से सुर्खियों में बना हुआ है. पहले किसान आंदोलन को लेकर भी इस पर बार-बार चर्चा होती रही है. किसान मांग कर रहे हैं कि एमएसपी को लेकर सरकार कानून बनाए यानी अनिवार्य कर दे.
अभी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग यानी सीएसीपी के सिफारिश पर सरकार 23 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करती है, जिनमें 7 अनाज धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौं हैं. इसमें पांच, दलहन चना, अरहर, उड़द, मूंग और मसूर भी शामिल हैं. वहीं 7, तिलहन और चार नकदी कपास, गन्ना, खोपरा, और कच्चा जूट की फसले हैं. यह ध्यान देने वाली बात यह है कि फल, सब्जियां या मवेशियों से मिलने वाले दूध जैसे उत्पाद इनमें शामिल नहीं है. इसके अलावा सरकार गेहूं के साथ-साथ कपास जैसी एक-दो और फैसलों को ही एमएसपी के रेट पर किसानों से खरीदती है.
अभी तक सरकार सीएसीपी के जरिए कुछ फसलों की एमएसपी तय करती है. फसलों के समर्थन मूल्य को तय करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को तय करने के लिए एक कमेटी है, जिनके अलग-अलग सदस्य होते हैं और उसमें कुछ किसान भी शामिल होते हैं. फिर वह तय करते हैं कि किसी भी फसल का एमएसपी क्या होगा. हालांकि जानकारों का कहना है कि जिस एमएसपी को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं, उससे उनका भला ज्यादा नहीं होगा बल्कि किसानों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को एक ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए, जिसके जरिए किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के सहारे न रहकर अधिकतम समर्थन मूल्य की ओर खुद को फोकस करें. वहीं,अगर सरकार सभी एमएसपी वाली फसलों को खरीदती है तो उसे एक साल में करीब 17 लाख करोड़ के बजट की जरूरत होगी.
क्या किसानों के लिए एमएससी फायदेमंद है?
एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य वह मिनिमम रेट होता है, जिसपर सरकार किसानों से अनाज खरीदती है. एमएसपी की घोषणा सरकार की ओर से साल में दो बार रबी और खरीफ के मौसम में बुवाई से पहले की जाती है. इसके पीछे मकसद होता है कि किसानों को जिन फसलों पर एमएसपी दी जा रही है, उनके उत्पादन के लिए प्रोत्साहन मिले और किसानों के अनाज कम से कम एमएसपी रेट पर बिके ताकि उन्हें उपज का सही मूल्य मिले.
विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि अगर एमएसपी के जरिए सरकार किसानों को पैसा देती है तो आखिर में इसका सीधा असर देश की जीडीपी ग्रोथ पर पड़ेगा. देश का किसान गरीब है, एमएसपी देने पर उनकी आमदनी बढ़ेगी और फिर उनकी खरीददारी पावर बढ़ेगी तो देश का जीडीपी भी ज्यादा तेजी से बढ़ेगा. अभी सरकार सिर्फ 23 फसलों पर एमएसपी देती है, लेकिन असल में सिर्फ तीन फसल ही पर वो ठीक से लागू हो पता है. अगर किसानों को सभी फसलों पर एमएसपी दिया जाए तो वह गेहूं और चावल से दूसरी फसलों की तरफ शिफ्ट करेगा और यह देश की इकोनॉमी में बूस्टर डोज का काम करेगा.
सरकार के सामने क्या चुनौती?
किसान अपनी फसल खेत से राज्यों के अनाज मंडी में पहुंचते हैं. इन फसलों में गेहूं और चावल को फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया एमएसपी दर से खरीदी है. एफसीआई किसानों से खरीदे इन अनाजों को गरीबों के बीच सस्ती दर पर देती है, लेकिन एफसीआई के पास अनाज का स्टॉक इसके बाद भी बचा ही रहता है. जानकार बताते हैं कि जितने अनाज का उत्पादन होता है, सरकार उसका केवल 13-14 फीसदी एमएसपी के तौर पर खरीदती है, बाकी सारा अनाज खुले बाजार में बिकता है. सरकार द्वारा खरीदा गया यह 13-14 फीसदी अनाज भी गोदामों में भरा हुआ है, जिसे सरकार बांट नहीं पाती है. सरकार ने कोविड के बाद मुफ्त अनाज की घोषणा की तो सब्सिडी का बिल करीब 3.30 करोड़ पहुंचा दिया, वह अनाज भी बंट नहीं पाया.
सीएसीपी की रिपोर्ट भी कहती है कि एफसीआई के गोदाम में गेहूं और चावल मिलाकर सरकार के पास 74.3 मिलियन टन का भंडारण है, जो 41 मिलियन टन होना चाहिए यानी भारत के पास जरूरत से 33.1 मिलियन टन ज्यादा गेहूं और चावल स्टोर है. शांता कुमार की रिपोर्ट कहती है कि एमएसपी का लाभ देश के सिर्फ 6 फीसदी किसानों को मिलता है और दूसरा यह कि एफसीआई जिस पीडीएस यानी जन वितरण प्रणाली के तहत एमएसपी पर अनाज खरीद कर गरीबों को बांटती है, वह दुनिया की सबसे महंगी खाद्य सुरक्षा प्रणाली में से एक है.
फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रहे आलोक सिन्हा के मुताबिक, एफसीआई को एमएसपी के ऊपर मंडी से गेहूं खरीदने के लिए 14 फीसदी की प्रोक्योरमेंट कॉस्ट यानी मंडी टैक्स, आढ़त टैक्स, रूरल डेवलपमेंट सेस, पैकेजिंग, लेबर, स्टोरेज देना पड़ता है. फिर 12 फीसदी उसे वितरित करने में खर्च करना पड़ता है, जिसमें लेबर, लोडिंग और अनलोडिंग शामिल होता है. इसके बाद आठ फीसदी होल्डिंग कॉस्ट यानी रखने का खर्च आता है यानी एफसीआई एमएसपी के ऊपर गेहूं खरीदने पर 34 फीसदी अधिक खर्च करती है.
मतलब अगर गेहूं की एमएसपी 2000 रुपया प्रति कुंटल है तो पीडीएस में जनता को बांटने में सरकार को लगभग 2680 रुपए प्रति क्विंटल खर्च करना पड़ता है. इसके अलावा एफसीआई को 8 फीसदी लो क्वालिटी फसल भी लेनी होती है, उसका नुकसान अलग से होता है यानी एमएसपी से ना तो देश के 82 करोड़ किसानों को लाभ मिल पाता है और ना ही एग्रीकल्चर इकोनामी मजबूत होती है और ना ही सरकार की कृषि नीति को कामयाबी मिल पाती है.
अमेरिका ने भी बंद की सब्सिडी
दुनिया के कई देशों में कृषि पर सब्सिडी मिलकी रही है और समय-समय पर उनमें बदलाव और बंद भी किया गया है. यहां चौंकाने वाला एक उदाहरण अमेरिका का है. 1977 में अमेरिका में जिमी कार्टर राष्ट्रपति थे तो उन्होंने तय किया कि हर 6 महीने में दूध के दाम बढ़ेंगे. इससे दूध का उत्पादन ज्यादा होने लगा तो सरकार ने दूध खरीदने का निर्णय किया. इससे अमेरिका में दूध स्टोर की कमी हुई. तब अमेरिकी सरकार ने तय किया कि अब दूध नहीं सरकार चीज खरीदेगी.
उसके बाद चीज बनाने वाली कंपनियों ने दूध खरीदना शुरू कर दिया. उस वक्त चीज को लेकर समस्या यह हो गई कि किसान खराब दूध भी बेच रहे थे तो अमेरिकी सरकार ने चीज को टेस्ट करने वालों की भर्तियां की. जल्दी सारे गोदाम चीज से भर गए. सरकार 120 फुटबॉल के मैदान के बराबर एक गोदाम भी बनवाया, लेकिन समस्या कम नहीं हुई. 1981 में रोनाल्ड रीगन अमेरिका के राष्ट्रपति बने, तब तक चीज खरीद के लिए टैक्स पेयर्स के 200 करोड़ डॉलर यानी 14875 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे. इतने भारी नुकसान के बाद रीगन ने इस योजना को बंद कर दिया.