लखनऊ. उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी (BSP) का प्रदेश की राजनीति में लगातार पतन जारी है. हाल ही में सामने आए निकाय चुनाव के नतीजों में बीएसपी अधिकतर सीटों पर तीसरे नंबर पर खिसक गई है. बीजेपी ने इन चुनावों में रिकॉर्ड स्तर पर जीत हासिल की है. वहीं समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर है. इससे साफ होता है कि बीएसपी की ग्राउंड पर पकड़ कमजोर हो रही है.
मुद्दो की राजनीति करने वाली और अपने स्ट्रिक्ट डिसीजन्स के लिए जानी जाने वाली मायावती बहुत लंबे वक्त से ग्राउंड कनेक्ट से दूर हैं. अगर 2022 के चुनावों की बात की जाए तो बहुजन समाज पार्टी को सिर्फ एक विधानसभा सीट पर जीत मिली थी. जो पार्टी कभी पूरे प्रदेश पर कब्जा करके सरकार बनाए महज चंद सालों में उसकी इतनी बुरी दुर्गती कई सवाल खड़े करती है. बीएसपी कैंडिडेट को बलिया जिले के रसड़ा विधानसभा सीट पर जीत मिली थी.
अगर इन चुनावों के दौरान बीएसपी के वोट शेयर की बात की जाए तो पार्टी को सिर्फ 12.88 प्रतिशत वोट शेयर मिला था जो कि 2007 में 30.43 प्रतिशत था. इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि मायावती का ग्राउंड कनेक्ट और उनका वोटर कितना कम हुआ है. इसके पीछे कई राजनीति कारण हो सकते हैं लेकिन मायावती का प्रदेश की राजनीति में कम सक्रिय होना सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है.
14 अप्रैल 1984 को बनी इस पार्टी की कमान मायवती ने 18 सितंबर 2003 को संभाली थी. इसके बाद से उन्होंने दलितों की राजनीति में कई अहम मुकाम हासिल किए. उनके साथ हमेशा कोई न कोई विवाद भी जुड़े रहे, लेकिन फिर भी मायावती की सियासी ताकत बढ़ती रही.
पीएम बनने की ख्वाहिश में बदला राजनीति का रास्ता
2007 में उत्तर प्रदेश की जनता ने मायावती की पार्टी बीएसपी को पूर्ण बहुमत दिय़ा था. इस वक्त मायावती को लगा कि वह शायद सवर्ण वोटर्स खासतौर पर ब्राह्मण वोटों की वजह से वह प्रदेश में सरकार बनाने में सफल रही हैं. इसी रास्ते पर चलते हुए मायावती ने अपनी पार्टी की राजनीति जिसका मोटो था, ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ उसे बदलकर सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाए कर लिया.
मायावती ने यह इसलिए किया था क्योंकि उन्हें लगा कि अगर संगठन की सरकार केंद्र में बनती है तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल सकता है और उन्हें सवर्ण इस दौरान सपोर्ट करेंगे. न सिर्फ मोटो बल्कि मायावती ने इस दौरान अपना वर्किंग स्टाइल भी बदला था. इसी के बाद से मायावती की पार्टी का पतन शुरू हुआ और एक के बाद एक उन्हें कई चुनावों में हार का सामना करना पड़ा.
एक के बाद एक मिली करारी हार, लेकिन चलता रहा ब्लेम गेम
मायावती को ठीक 2007 के विधानसभा चुनाव के बाद से हार का सामना करना पड़ा है. लेकिन हर बार मायावती ने हार को स्वीकार करने की जगह दूसरों पर इसे टालने की कोशिश की है. मायावती ने 2008 के उपचुनाव हारे थे. जिसके बाद से चर्चा होने लगी थी कि मायावती का समर्थन उनके वोटर्स के बीच कम हो रहा है. 2009 के लोकसभा में भी उनकी पार्टी ने बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था. इस दौरान उन्होंने कहा था कि उनका वोट शेयर बढ़ा है.
इसके बाद 2012 विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद उन्होंने कहा था कि उनके द्वारा बनाए गए मोनुमेंट्स के बारे में गलत जानकारी फैलने से उन्हें हार का सामना करना पड़ा है. इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें एक भी सीट नहीं मिली. इसके बाद उन्होंने मुस्लिम वोटर्स को उनकी हार का कारण बताया था. इसके बाद 2017 में विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने अपनी हार का ठीकरा ईवीएम मशीन पर फोड़ दिया.