हिंदुस्तान का एक बड़ा धड़ा, विशेषकर वो तबका जिसे कानून का गहराई से ज्ञान नहीं होता है. या फिर मजबूत कानून की काम-चलाऊ समझ होती है. रेप के मामलों में अक्सर इस सवाल पर आकर अटक या उलझ जाते हैं कि, क्या भारतीय कानून में पीड़िता का बयान ही दुष्कर्म (रेप) के मुकदमे में मुजरिम को सजा दिलवाने के लिए काफी है?
टीवी9 ने इसी बेहद अहम सवाल के जवाब में तलाशे देश के अलग अलग कुछ हाईकोर्ट्स के फैसले. जो इस तरह के मामलों में मील का पत्थर साबित हो चुके हैं. और बात की देश के कई मशहूर कानूनविदों, उन पूर्व पुलिस अफसरों से जो कभी इसी तरह के उलझे हुए मुकदमों की तफ्तीश करके या करवाकर, अदालतों से मुजरिमों को बलात्कार के मामलों में सजा कराते रहे हैं.
दिल्ली हाईकोर्ट ने किया था फैसला
इस बारे में सबसे पहले जिक्र करते हैं दिल्ली हाईकोर्ट के उस एक अहम फैसले का जिसमें उसने साफ साफ फैसला दिया था कि, आईपीसी की धारा 376 यानी दुष्कर्म (बलात्कार) के मुकदमो में आरोप तय करने के लिए पीड़िता का बयान ही पर्याप्त है. हां, बस यह बयान होना सीआरपीसी की धारा-164 के तहद दर्ज हुआ. ऐसा नहीं है पीड़िता ने कहीं भी किसी भी पुलिस अधिकारी या जांच एजेंसी के किसी भी अफसरो को मनमानी ढंग से बयान दर्ज करा दिया. और अदालतें उसी बयान को सही मानकर संदिग्ध को मुजरिम करार देकर सजा मुकर्रर कर देंगी.
हाईकोर्ट ने यह फैसला नवंबर 2022 में दुष्कर्म के एक मामले में दिया
दिल्ली हाईकोर्ट ने यह फैसला नवंबर 2022 में दुष्कर्म के एक मामले में दिया. दिल्ली हाईकोर्ट ने साफ-साफ लिखा कि, “अपराध का खुलासा करने वाली सीआरपीसी की धारा-164 के अंतर्गत दुष्कर्म पीड़िता का आईपीसी की धारा-376 के मुकदमे में दर्ज बयान ही, आरोपी के खिलाफ कानूनन आरोप तय करने का पर्याप्त आधार है.” यह फैसला सुनाते वक्त जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने आगे लिखा,”रेप के मुकदमे में किसी आरोपी/मुलजिम को महज इस बिना पर ब-इज्जत बरी नहीं किया जा सकता है कि, पीड़िता या शिकायतकर्ता ने, मुकदमे की एफआईआर या एमएलसी (मेडिको लीगल सर्टिफिकेट) के दौरान इस बारे में लिखा नहीं गया था.”
बात अगर दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा इस मामले के निपटारे के दौरान लिखे गए हू-ब-हू फैसले की करें तो उसमें यह मजमून दर्ज था. “ऐसा इसलिए है क्योंकि, रेप जैसी धाराओं के तहत दर्ज मुकदमों में जहां अधिकांशत: केवल पीड़िता ही इकलौती-एकमात्र गवाह होती है, पीड़िता के बयान को आरोप तय किए जाने के वक्त विचारशील और उदारशील नजरिए से भी देखा जाना चाहिए. सीआरपीसी की धारा-164 के अंतर्गत पीड़िता द्वारा दर्ज कराया गया बयान, बलात्कार के अपराध का खुलासा करने के लिए आईपीसी की धारा-376 के मुकदमे में मुलजिम के खिलाफ मुकदमा आरोप तय (चार्ज फ्रेम) तय करने के लिए पर्याप्त होगा.”
जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने क्या लिखा था
जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने आगे लिखा…यह देखते हुए कि अदालतों को “किसी भी व्यक्ति के खिलाफ यौन हिंसा की घटना के बाद सावधानीपूर्वक उस पर विचार करना चाहिए.””इस तरह के मुकदमों या घटनाओं के बाद, पीड़ित को शारीरिक व भावनात्मक यानी दोनो ही रूप से पहुंचे आघात पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए. अक्सर या कई बार ऐसा भी होता है कि, पीड़ित घटना के तुरंत बाद, रेप के मुकदमों की शिकायत कर पाने की मनोदशा या हालातों में खुद को नहीं पाता है.
हमलावर या पुलिस द्वारा या एक दखलंदाजी मेडिकल एग्जामिनेशन (चिकित्सा परीक्षण) के जरिए आगे की जांच के आघात से गुजरने के लिए, और एक आरोपी को केवल धराा-376 के तहत डिस्चार्ज (बरी) नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि पीड़िता ने अपने मुकदमे की एफआईआर में या एमएलसी के दौरान इसके बारे में कोई जिक्र नहीं किया था.” इन तथ्यों का उल्लेख भी दिल्ली हाईकोर्ट में पेश इसी मामलें में किया गया है. दिल्ली हाईकोर्ट ने जांच एजेंसी का नाम लिए बिना कहा, “सबूतों की विस्तार से सराहना करने और पूरे मामले के शुरू होने से पहले ही उसे खतम कर डालने के लिए एक “अति उत्साही दृष्टिकोण” कई मर्तबा न्याय के लिए घातक और आपराधिक न्याय प्रणाली में पीड़ित के विश्वास के प्रति घातक साबित होता है.
दरअसल रेप केस में किसी पीड़िता के सीआरपीसी की धारा-164 में दर्ज बयानों की यह अहमियत दिल्ली हाईकोर्ट ने, दिल्ली पुलिस को तब समझाई, जब दिल्ली पुलिस ट्रायल कोर्ट के एक फैसले को लेकर हाईकोर्ट पहुंची. इस पुनर्विचार याचिका के साथ कि, निचली अदालत ने रेप के आरोपी को गलत तरीके से रिहा कर दिया है. उस मामले में साल 2016 में निचली अदालत ने आरोपियों को धारा-376 के आरोप से बरी कर दिया, हालांकि आरोपियों को ट्रायल कोर्ट ने रेप के उस मुकदमे में आईपीसी की अन्य धाराओं में मुजरिम करार दिया था. यह मुकदमा मार्च 2016 का था. जिसमें मुलजिमों पर आरोप लगा था कि, उन्होंने 5 महीने की गर्भवती (रेप के मुकदमे की शिकायतकर्ता) के घर में अवैध रूप से प्रवेश करके, उसका शीलभंग करने के इरादे से, महिला के ऊपर हमला बोल दिया था.
अप्रैल 2016 में पीड़िता के सीआरपीसी की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने बयान दर्ज कराए गए. जिसमें खुलासा हुआ था कि, आरोपियों में से एक ने महिला के जननांगों में उंगली डाली थी. हालांकि उस मुकदमे में इन्हीं बयानों के आधार पर पुलिस ने बाद में धारा-376 (दुष्कर्म) जोड़ी थी. रेप के मामले में महिला के बयानों को सर्वोपरि बताते हुए इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए यह भी लिखा कि, “बलात्कार के अपराध के तहत आरोप केवल सीआरपीसी की धारा-164 के अंतर्गत दिए गए बयान के आधार पर भी लगाया जा सकता है. भले ही ऐसा आरोप मुकदमे की एफआईआर में या फिर सीआरपीसी की धारा के तहत पीड़िता ने दर्ज न भी कराया हो.”
इस बारे में टीवी9 से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के सीनियर क्रिमिनल लॉयर डॉ. ए.पी. सिंह ने कहा, “बलात्कार के मुकदमे में अगर पीड़िता का बयान सीआरपीसी की धारा-164 के तहत और मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज कराया गया है. तो उसे ही सर्वोपरि माना जाता है. हां, इतना जरूर है कि महिला के आरोपों को कोर्ट में सही साबित करने के लिए पुलिस को जरूर, संबंधित तथ्य, मजबूत सबूत पड़ताल के दौरान इकट्ठे करने होंगे. क्योंकि जहां सिर्फ महिला का बयान ही सर्वोपरि माना जा रहा हो, तो फिर वहां आरोपी या मुलजिम पक्ष भी तो अपने बचाव में, तमाम तिकड़म, उल्टे-पुल्टे सबूत और गवाह कोर्ट में ले जाना चाहेगा.”
दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ क्रिमिनल लॉयर और दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के रिटायर्ड डीसीपी एल एन राव ने कहा, “रेप के मामले में जांच एजेंसी, पीड़िता और कोर्ट तीनों के बीच बैठा सामंजस्य, आरोपी को सजा दिलाने में पुल का सा काम करता है. रेप-विक्टिम का मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज सीआरपीसी की धारा-164 का बयान बेशक ऐसा होता है जिसे चैलेंज करना मुश्किल होता है. क्योंकि कोर्ट भी हमेशा पीड़ित पक्ष के साथ खड़ी होती है. न कि मुलजिम पक्ष की तरफ. ऐसे में और कानूनन भी हमेशा रेप विक्टिम का बयान ही, मुलजिम को बचाव के कई उपायों पर भारी पड़ता है. बशर्ते कि, पीड़िता के बयान पर कोर्ट शक न हो. अगर रेप केस में पीड़िता कोर्ट में दिए अपने ही बयानों को लेकर, खुद को शक के घेरे में ला बैठती है. तो पूरा मामला ही पलट जाता है.”
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसले में क्या कहा था
ऐसा नहीं है कि दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा रेप मामले में महिला के बयान को ही सर्वोपरि माना गया हो. ऐसा उदाहरण या कहिए नजीर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी एक मामले में पेश की. जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसले में लिखा था कि, “रेप पीड़िता की अकेली गवाही या रेप पीड़िता का बयान ही सजा के लिए पर्याप्त आधार है.
जरूरी नहीं कि रेप के मुकदमे में चश्मदीद ही पेश हो तभी आरोपी को सजा सुनाई जा सकती है.” इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तो यहां तक लिख दिया कि, “दुष्कर्म के मामले में पीड़िता के बयान की अन्य सुसंगत साक्ष्यों से समानता होना भी अनिवार्य नहीं है. जबतक कि ऐसा करना बेहद जरूरी न लगे. रेप मामले में यह भी बात कोई मायने नहीं रखती है कि पीड़िता के बयान में कोई मामूली सा विरोधाभास मौजूद रहा है. ऐसा कोई कानून नहीं है कि जो पीड़िता के बयान में सुसंगत साक्ष्यों के अभाव में विश्वास न करने पर कोर्ट को बाध्य कर सके.”