वतनपरस्ती का जज्बा ही था जो युवा महमूद अंसारी (Mahmood Ansari) को अच्छी खासी डाक विभाग की नौकरी छोड़ पाकिस्तान में जासूसी करने के लिए ले गया. उनकी इस खिदमत का उन्हें ये सिला मिला कि उन्हें अपने ही देश में अपने हकों के लिए कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी. 14 साल बाद पाकिस्तान की जेल से रिहा होकर अंसारी भारत पहुंचे तो सरकार और उनके ही डाक विभाग ने उन्हें दरकिनार कर दिया. देश की सेवा में लगे इस जासूस को अपना हक हासिल करने के लिए आखिरकार अदालत में याचिका डालनी पड़ी. हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) उनके लिए मसीहा बन कर पेश आया. कोर्ट ने केंद्र सरकार से अजीब परिस्थितियों के मद्देनजर उन्हें 10 लाख रुपये की अनुग्रह राशि (Ex-Gratia) देने को कहा है.
क्या था जासूस की याचिका में
महमूद अंसारी की याचिका में कहा गया है कि जब वह जयपुर में काम कर रहे थे तो उन्हें खुफिया ब्यूरो (Intelligence Bureau) से देश की सेवा करने का प्रस्ताव मिला और एक खास काम के लिए उन्हें दो बार पाकिस्तान भेजा गया. हालांकि, उन्हें पाकिस्तानी रेंजर्स ने रोक लिया. याचिका के अनुसार, 12 दिसंबर 1976 को उन्हें पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिया गया. अंसारी पर पाकिस्तान में आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम (Official Secrets Act in Pakistan) के तहत मुकदमा चलाया गया और 1978 में उन्हें 14 साल जेल की सजा सुनाई गई. उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि इस बीच, जुलाई 1980 में, उन्हें उनकी डाक विभाग की सेवाओं से बर्खास्त करने के लिए एक पक्षीय आदेश पारित किया गया था. उन्होंने ये भी याचिका में कहा कि उन्होंने पाकिस्तान में अपनी कैद की अवधि के दौरान अपने ठिकाने के बारे में अधिकारियों को सूचित करने के लिए कई पत्र लिखे थे. 1989 में अंसारी अपनी रिहाई के बाद भारत वापस आए. उन्होंने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण और राजस्थान (Rajasthan) उच्च न्यायालय के सामने अपनी बर्खास्तगी को चुनौती दी, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.
क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि अक्सर सरकारें अपने खास एजेंट्स यानी जासूसों को मानने से इंकार करती हैं. कोर्ट ने पाकिस्तान में भारत के एजेंट रहे महमूद अंसारी को केंद्र सरकार से मुआवजे के तौर पर 10 लाख रुपये का भुगतान करने को कहा है. अंसारी ने दावा किया था कि उसने 1970 के दशक में भारत के लिए एक जासूस के तौर पर काम किया था और 14 साल पाकिस्तान की जेल में जासूसी के आरोप में काटे. हालांकि इस मामले में कोर्ट ने 75 वर्षीय महमूद अंसारी के 1972 में एक जासूस के तौर पर काम करने के दावों पर फैसला सुनाने से परहेज किया.
शीर्ष अदालत ने केवल ये कहा कि केंद्र सरकार को अनुग्रह राशि का भुगतान करना होगा. भारत के मुख्य न्यायाधीश उदय उमेश ललित (Uday Umesh Lalit) और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट (S Ravindra Bhat) की खंडपीठ ने नोटिस किया कि सरकार ने स्वीकार किया है कि अंसारी राजस्थान में डाक विभाग में काम करते थे. कोर्ट ने कहा कि 1976 में वहां के अधिकारियों के पकड़े जाने से पहले अंसारी ने दो बार सफलतापूर्वक पाकिस्तान की यात्रा की थी. इस दावे को नकारने के लिए सरकार की तरफ से किसी भी तरह के दस्तावेज कोर्ट में पेश नहीं किए जा सके.
अदालत में जब अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल -एएसजी (Additional Solicitor General -ASG) विक्रमजीत बनर्जी (Vikramjit Banerjee) ने जोर देकर कहा कि भारत सरकार का अंसारी से कोई लेना-देना नहीं था. तब पीठ ने टिप्पणी की, “किसी भी सरकार का सर्वप्रचलित तरीका अपने खास एजेंटों को अस्वीकार करना है. कोई भी सरकार उनके मालिक होने की बात नहीं स्वीकारेगी. शायद यह ठीक है, लेकिन यह इस तरह काम करता है.
कानून अधिकारी ने भी नकारा
महमूद अंसारी (Mahmood Ansari) को एएसजी ने भी नकार दिया. एएसजी ने दलील दी कि अंसारी को 1976 और 1980 के बीच बगैर बताए लापता ( Unauthorised Absence) रहने की वजह से बर्खास्त किया गया था. बनर्जी ने कहा कि अंसारी KS पाकिस्तान की जेल से भारत में अधिकारियों को लिखे गए पत्र थे, जिससे उनके आचरण पर संदेह पैदा हो रहा था. अदालत ने एएसजी को ये दस्तावेज दिखाने के लिए कहा कि जिस वक्त अंसारी जयपुर में अपने कार्यस्थल में थे. उन्होंने दावा किया था कि वह असाइनमेंट के लिए पाकिस्तान गए थे. वहीं ये दस्तावेज सरकार कोर्ट के सामने पेश नहीं कर पाई.
बर्खास्तगी में क्यों लगें 4 साल
कोर्ट ने एएसजी से पूछा कि अगर महमूद अंसारी 1976 से अनुपस्थित थे, तो उनकी सेवाएं खत्म करने में आपको चार साल क्यों लगे? क्या आप दिखा सकते हैं कि जब वह दावा करते हैं कि वह पाकिस्तान गए थे, तो क्या वह उस पद पर मौजूद थे? यदि वह मौजूद नहीं थे, तो विभाग में उनकी अनुपस्थिति को कैसे लिया गया?” तब एएसजी बनर्जी ने कोर्ट को जवाब दिया कि 1970 के दशक के ऐसे रिकॉर्ड हासिल करना बहुत मुश्किल था. पीठ ने एएसजी को बताया कि “हमें लगता है कि अगर हम याचिकाकर्ता की दलीलें सुनते हैं तो ऐसे मामलों में कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं होगा. इसलिए, हम आपसे 5 लाख रुपये की अनुग्रह राशि का भुगतान करने के लिए कहने जा रहे हैं.
एएसजी बनर्जी ने मुआवजे के आदेश का इस आधार पर विरोध किया कि इसका मतलब याचिकाकर्ता की दलीलों को स्वीकार करना होगा. हालांकि अंसारी के वकील समर विजय सिंह (Samar Vijay Singh) ने अदालत से राशि बढ़ाने का आग्रह किया. सिंह ने कहा, “उन्होंने राष्ट्र के लिए अपनी सेवाएं दी हैं. वह 14 साल से जेल में थे और अब सरकार ने उन्हें न केवल खारिज कर दिया है, बल्कि उन्हें पेंशन देने से भी इनकार कर दिया है. याचिकाकर्ता 75 वर्ष के हैं और पूरी तरह से अपनी बेटी पर निर्भर हैं.” सिंह की याचिका को स्वीकार करते हुए, पीठ ने मुआवजे को बढ़ाकर 10 लाख रुपये कर दिया. साथ ही अदालत ने एएसजी बनर्जी को कहा कि अंसारी एक भारतीय जासूस थे या नहीं, इस विवाद से अदालत साफ हो रही है और हम अपने आदेश में उनके दावों के संबंध में कुछ भी दर्ज नहीं कर रहे हैं.”