हिंदी बेल्ट के तीन राज्यों में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस नजदीक आ चुके 2024 के लोकसभा चुनाव में फिर से उठ खड़े होने की कोशिश में लग गई है. उसने राज्यों के प्रभारी बदल दिए हैं और कुछ नए चेहरों को केंद्रीय टीम में शामिल करके सुस्त संगठन को सक्रिय करने की दिशा में कदम बढ़ाएं हैं. इस फेरबदल में सबसे बड़ा नाम प्रियंका गांधी वाड्रा का है. अभी तक उत्तर प्रदेश का प्रभार उनके पास था. अब यह जिम्मेदारी अविनाश पांडे को सौंपी गई है.
साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में प्रियंका की अगुवाई में “लड़की हूं, लड़ सकती हूं” के संकल्प के साथ कांग्रेस चुनाव मैदान में उतरी थी. लेकिन कांग्रेस के लिए चुनावी इतिहास की यह सबसे शर्मनाक पराजय रही. 403 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस को सिर्फ दो सीटें मिली थीं. प्रियंका ने तभी से उत्तर प्रदेश से दूरी बना ली थी. गांधी परिवार पार्टी का पर्याय है. इसलिए तय है कि उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी से प्रियंका का अलगाव उनका और परिवार का फैसला है.
कभी थीं तुरुप का इक्का
2019 के पहले तक प्रियंका कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का मानी जाती थीं. खासतौर पर कांग्रेसी अमेठी के 1999 के उस लोकसभा चुनाव की याद करते थे, जब प्रियंका पहली बार अमेठी में मां सोनिया गांधी के लोकसभा चुनाव प्रचार के लिए मैदान में उतरीं थीं. इसी चुनाव में उन्होंने पारिवारिक सीट रायबरेली में अपने पिता के दोस्त कैप्टन सतीश शर्मा का भी प्रचार किया था.
तब अमेठी से रायबरेली तक प्रियंका के जादू से उमड़ी जनता देख अखबारों की सुर्खियां बनी थी, “वो आईं मुस्कराई और छा गईं.” इस चुनाव में अमेठी में सोनिया गांधी के प्रतिद्वंद्वी डॉक्टर संजय सिंह की जमानत जब्त हो गई थी. रायबरेली में अरुण नेहरू जिनके लिए प्रियंका ललकारी थीं, “इस गद्दार ने पीठ में छुरा घोंपा” को वोटरों ने तीसरे नंबर पर पहुंचा दिया था.
लड़की हूं – लड़ सकती हूं ..!
लोकसभा की सर्वाधिक 80 सीटों वाला राज्य उत्तर प्रदेश 1989 से कांग्रेस के लिए चिंता का विषय रहा है. राज्य में पार्टी के दुर्दिन राजीव गांधी के दौर में ही शुरू हो गए थे. 1999 में सोनिया गांधी की प्रदेश की अमेठी से पहली जीत और फिर 2004 से इस सीट से राहुल गांधी की लगातार जीत भी पार्टी को उबार नहीं सकी. पार्टी को अगली उम्मीद प्रियंका से थी. वे 1999 से अमेठी और रायबरेली तक अपने को सीमित किए हुए थीं. चुनाव दर चुनाव उनसे चुनाव लड़ने और बाकी इलाकों में भी प्रचार करने की कांग्रेसी मांग करते थे. उन्हें पार्टी का तुरुप का इक्का माना जाता था और कांग्रेसियों को भरोसा था कि उनके मैदान में आ जाने से अच्छे दिन वापस आ जाएंगे.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी वाड्रा ने शुरुआत की और 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान तो पूरे तौर पर संभाल ली. “लड़की हूं- लड़ सकती हूं” के संकल्प के साथ उन्होंने खूब मेहनत भी की. लेकिन नतीजे पहले से भी ज्यादा मायूस करने वाले थे. 2019 में राहुल गांधी ने अमेठी की लोकसभा सीट गंवा दी. प्रदेश में इकलौती लोकसभा सीट रायबरेली कांग्रेस के पास बची जिसका प्रतिनिधित्व सोनिया गांधी कर रही हैं. 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 399 में 387 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गईं. 2017 की तुलना में वोट फीसद 6.25 से घटकर 2.33 रह गया और सीटें 7 से 2 पर पहुंच गईं.
गांधी परिवार की कर्मभूमि में पार्टी बेहाल
गांधी परिवार की राजनीतिक कर्मभूमि उत्तर प्रदेश रही है. इस परिवार से जुड़े देश के तीन प्रधानमंत्रियों जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने उत्तर प्रदेश की क्रमशः फूलपुर, रायबरेली और अमेठी लोकसभा सीटों का प्रतिनिधित्व करते हुए देश का नेतृत्व किया. लेकिन ये गुजरे दौर की बातें हैं. पिछले लगभग साढ़े तीन दशक से हर अगले चुनाव में पार्टी पहले से बदतर हालत में पहुंची है.
साल 1989 में राज्य विधानसभा में उसकी सीटें 94 थीं. 1991 में यह घटकर 46 और 1993 में 28 पर पहुंच गईं. 1996 में बसपा गठबंधन की मदद ने मामूली बढ़ोतरी करके उसे 33 पर पहुंचाया, लेकिन फिर 2002 में 25, 2007 में 22 और 2012 में 28 तो 2017 में सपा के साथ होने पर भी 7 सीटों पर सिमट गई और 2022 के चुनाव में सिर्फ 2 सीटें हासिल हुई थीं.
प्रियंका… नहीं चला कोई जादू
पार्टी आगे उत्तर प्रदेश में क्या कर पाएगी इसे भविष्य पर छोड़िए. लेकिन जहां तक प्रियंका का सवाल है वे अब तक के अपने राजनीतिक सफर में वह उतरी खरी नहीं उतर पाईं, जितना उनसे उम्मीद थी.इसके गवाह उत्तर प्रदेश के 2019 के लोकसभा और 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजे हैं. 2023 में जब वे औपचारिक तौर पर प्रदेश के प्रभार से मुक्त हुई हैं तो उनकी असफलताओं में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की पार्टी की पराजय भी जुड़ चुकी है, जहां उन्होंने काफी प्रचार किया था. हालांकि कर्नाटक और तेलंगाना में कुछ हद तक प्रियंका गांधी की मेहनत जरूर रंग लाई.
प्रियंका के उम्मीद के अनुसार प्रदर्शन न करने की वजह यह भी हो सकती है कि राजनीति में सक्रिय होने का उनका या परिवार का फैसला काफी देरी से लिया गया. पार्टी में जिम्मेदारी कुबूल करने में प्रियंका गांधी ने 20 साल का लंबा वक्त ले लिया. 1999 में उन्होंने अपनी मां सोनिया गांधी के पहले लोकसभा चुनाव की अमेठी में जिम्मेदारी को संभाला था.
2004 से सोनिया के रायबरेली से चुनाव लड़ने और भाई राहुल गांधी के अमेठी से जुड़ने के बाद वह दोनों क्षेत्रों में इसका निर्वाह कर रही थीं. इस बीच कांग्रेसी लगातार उनसे अमेठी, रायबरेली के अलावा बाकी देश-प्रदेश में भी सक्रिय होने की मांग करते रहे. हर चुनाव से पहले मीडिया भी उनको लेकर काफी अटकलबाजी करता था. किसी मौके पर राहुल तो कभी पार्टी की ओर से यह कहा जाता रहा कि प्रियंका जी को खुद ही राजनीति में आने का फैसला करना है.
फिलहाल अब फिर से आम चुनाव की बिसात बिछनी शुरू हो गई है. कांग्रेस भी अपनी टीम बनाने में लगी है. प्रियंका गांधी के स्थान पर पार्टी महासचिव अविनाश पांडे को उत्तर प्रदेश का नया प्रभारी बना दिया गया है, हालांकि वह मल्लिकार्जुन खरगे की नई टीम में बतौर महासचिव बनी हुई हैं. हिंदी पट्टी में मिली हार और दक्षिण के तेलंगाना राज्य में मिली जीत के बाद अब सभी की नजर इस पर है कि कांग्रेस अब किस तैयारी के साथ मैदान में उतरती है. प्रियंका गांधी किस तेवर के साथ लोगों के बीच जाएंगी. कांग्रेस में किए जा रहे बदलाव का क्या अगले लोकसभा चुनाव में फायदा मिलेगा.