‘ विजयंत हमेशा हमारे साथ रहता है…वो दिन के 24 घंटे, हफ्ते के सातों दिन और साल के 365 दिन इसी घर में रहता है, हमारे अंदर रहता है. मैं दिन की शुरुआत उसके सामने पूजा करने के बाद करता हूं. हमारी जिंदगी में जो चीज भी अच्छी गुजरती है वो हमें लगता है विजयंत ने हमारे लिए की है.’ ये उस पिता के शब्द हैं जिसने जंग के मैदान में अपना 22 साल का जवान बेटा खोया. कारगिल में देश के लिए लड़ते हुए शहीद हुए कैप्टन विजयंत थापर के माता-पिता 25 सालों के बाद भी अपने बेटे की यादों को समेटे हुए उसकी हर बात को याद करते हैं.विजयंत के पिता रिटायर्ड कर्नल वी. एन. थापर और उनकी मां तृप्ता थापर ने अपने बेटे की हर निशानी को अपने घर में संजो रखा है.
विजयंत के खिलौने, वर्दी, उनकी डायरी, उनका हर सामान आज भी उनके कमरे में मौजूद है. लोग आते हैं और उसे देखते हैं. वे कहते हैं रॉबिन (विजयंत) का जाना हमारे लिए सबसे दुखद घटना है, लेकिन सबसे गौरवशाली पल भी है. देश के लिए शहीद होना किसी भी सैनिक के लिए सौभाग्य की बात होती है. सेना की वर्दी पहनने वाले हर जवान का यही सपना होता है और वो गौरव विजयंत को मिला.
वी. एन. थापर विजयंत को याद करते हुए कहते हैं- लोगों को लगता है कि वक्त से साथ सब भूल जाते हैं लेकिन हमने कभी उसे भूलने कोशिश नहीं की. हम उसे हमेशा याद करते हैं. समाज में उसकी अच्छी चीजों को बताते हैं. मैं स्कूल और कॉलेज में जाता हूं और छात्रों को देशभक्ति का संदेश देता हूं. किसी मां के लिए जवान बेटे को खोने से बड़ा गम कुछ नहीं हो सकता है. विजयंत की मां तृप्ता अपने बेटे को याद करते हुए कहती हैं-
विजयंत के खिलौने, वर्दी, उनकी डायरी, उनका हर सामान आज भी उनके कमरे में मौजूद है. लोग आते हैं और उसे देखते हैं. वे कहते हैं रॉबिन (विजयंत) का जाना हमारे लिए सबसे दुखद घटना है, लेकिन सबसे गौरवशाली पल भी है. देश के लिए शहीद होना किसी भी सैनिक के लिए सौभाग्य की बात होती है. सेना की वर्दी पहनने वाले हर जवान का यही सपना होता है और वो गौरव विजयंत को मिला.
वी. एन. थापर विजयंत को याद करते हुए कहते हैं- लोगों को लगता है कि वक्त से साथ सब भूल जाते हैं लेकिन हमने कभी उसे भूलने कोशिश नहीं की. हम उसे हमेशा याद करते हैं. समाज में उसकी अच्छी चीजों को बताते हैं. मैं स्कूल और कॉलेज में जाता हूं और छात्रों को देशभक्ति का संदेश देता हूं. किसी मां के लिए जवान बेटे को खोने से बड़ा गम कुछ नहीं हो सकता है. विजयंत की मां तृप्ता अपने बेटे को याद करते हुए कहती हैं-
22 साल के विजयंत के अंदर देशभक्ति का जज्बा कैसे?
विजयंत जिस दिन पैदा हुए और जिस दिन उनका बलिदान हुआ वो हमेशा फौजी माहौल में ही रहे. उनको मोटिवेट करने की जरूरत ही नहीं थी. उनके घर वालों ने कभी ये सोचा ही नहीं कि वो डिफेंस के अलावा किसी और फील्ड में जाएं. विजयंत ने खुद कभी किसी और फील्ड में जाने का नहीं सोचा. उन्होंने बचपन में ही तय कर लिया कि वो सेना में ही जाएंगे.
वी. एन. थापर उस दौर को याद करते हुए कहते हैं दिसंबर 1998 में विजयंत कमिशन हुआ था. आर्मी ज्वाइन करने के कुछ दिनों के बाद ही उसकी पोस्टिंग कुपवाड़ा में हुई तो पहले तो हमें पता ही नहीं था. जब वो ग्वालियर से कुपवाड़ा के लिए जा रहा था तब हमें फोन किया कि उसकी ट्रेन दिल्ली के तुगलकाबाद से होकर जाएगी. हम लोग उससे मिलने गए वो हमारी आखिरी मुलाकात थी, मुश्किल से 5-6 मिनट, उसके बाद वो कुपवाड़ा चला गया.
वो नन्ही बच्ची…
उस दौर में कुपवाड़ा में आतंक के खिलाफ जबरदस्त लड़ाई चल रही थी. आतंक के साए में भी विजयंत की जिंदादिली ऐसी थी कि वो हमेशा लोगों की मदद के लिए आगे रहते. विजयंत कुपवाड़ा में अपने मिशन के लिए आते जाते वक्त एक छोटी सी मासूम बच्ची को उसकी झोपड़ी के बाहर देखा करते थे, वो जवानों को डर के साथ देखा करती थी. विजयंत को उसकी खामोशी बर्दाश्त नहीं हुई उन्होंने उसके बारे में पूछताछ की तो पता चला कि उसके पिता को आतंकवादियों ने उसकी आंखों के सामने मार दिया था. वो देखकर बच्ची की आवाज चली गई थी.
विजयंत उसकी कहानी सुनकर पिघल गए और जब भी वक्त मिलता उस लड़की से बात करते उसे चॉकलेट देते धीरे-धीरे उस बच्ची में सुधार आने लगा वो बात करने लगी. विजयंत को उस बच्ची से इतना लगाव था कि उन्होंने अपने आखिरी खत में भी अपने पिता से उसकी मदद करने की गुजारिश की. विजयंत का माता-पिता आज भी उस बच्ची के संपर्क में हैं उसकी हर जरूरत पूरी करते हैं और उसे अपनी बेटी की तरह ही मानते हैं. वी. एन. थापर हर साल रुक्साना से मिलने कुपवाड़ा भी जाते हैं.
कुपवाड़ा में विजयंत दो खतरनाक एनकांउटर में भी शामिल रहे और आतंकवादियों का सफाया किया. एक बार टेलीफोन पर अपनी मां से बात करते हुए विजयंत ने बताया था कि कैसे उन्होंने एक लाइव मुठभेड़ का सामना किया जिसमें उन पर करीब तीस गोलियां चलाई गई थीं. उनकी मां तृप्ता उस फोन कॉल के बारे में बताती हैं- ‘मैंने उससे कहा बेटा संभलकर रहना तो उसने कहा ममा मुझे मारने वाली गोली बनी ही नहीं है लेकिन वो गलत था क्योंकि गोली बन चुकी थी इसलिए उसके कुछ वक्त के बाद ही वो शहीद हो गया.’
विजयंत की वो आखिरी कॉल..
तृप्ता थापर बताती हैं- विजयंत ने जबसे सेना ज्वाइन की थी वो एक बार भी छुट्टी पर नहीं आया था. एक दिन उसने फोन पर कहा था मैं जब वापस आऊंगा तो खूब सोऊंगा और अपने सारे पैसे उड़ा दूंगा. वो कुपवाड़ा से कारगिल कब गया मुझे पता ही नहीं चला. करीब ढ़ाई महीने के बाद उसने मुझे फोन किया, जब 2 राजपूताना राइफल्स ने तोलोलिंग जीत लिया था.
14 जून को उसने फोन किया और बोला ममा आपको पता है हमने तोलोलिंग जीत लिया है. मैंने न्यूजपेपर में उसका नाम पढ़ लिया था तब मुझे पता चला था कि वो वॉर के लिए गया है. उस दिन थोड़ी देर बात हुई उसके बाद विजयंत ने कहा मैं आपको 20 दिन के बाद फोन करूंगा क्योंकि मुझे एक और टास्क मिला है. 20 दिन बाद कॉल तो आई लेकिन विजयंत की नहीं बल्कि आर्मी हेडक्वॉर्टर से. मैं उस वक्त स्कूल में थी, मेरे छोटे बेटे ने फोन उठाया और विजयंत के शहादत की खबर मिली.
कैसे शहीद हुए विजयंत
28 जून 1999 रात के 8 बजे थे. 2 राजपूताना राइफल्स की टीम पाकिस्तानी फौज से मुकाबला करते हुए नॉल की तरफ आगे बढ़ रही थी. सर्द रात थी, सामने दुश्मन गोलियां बरसा रहे थे. 22 साल के विजयंत थापर इस टीम की अगुआई कर रहे थे. पहाड़ी पर बैठे दुश्मनों ने अचानक तोप से आग के गोले बरसाने शुरू कर दिए. एक झटके में सफेद बर्फ लाल हो गई और चारों तरफ जवानों की चीख पुकार मच गई. दुश्मनों के हमले से धरती हिल रही थी.
विजयंत और उनकी टीम रात के अंधेरे में अपना रास्ता भटक गई. रात के एक बज चुके थे ठंड और थकान से सबका बुरा हाल था. अचानक फायरिंग की आवाज आती है और उन्हें दूर से एक पहाड़ी दिखती है. इसके बाद सब उस तरह चढ़ाई शुरू कर देते हैं. नॉल में पहले से एक यूनिट मौजूद थी जो पाकिस्तानी फौज का मुकाबला कर रही थी.
विजयंत अपनी एके 47 हाथों में लिए लगातार फायर कर रहे थे. दुश्मन अपनी ओर आ रहे 2 राजपूताना राइफल्स के जवानों को रोकने की पूरी कोशिश कर रहे थे. उधर से फायरिंग इतनी तेज थी कि जवान चट्टानों के पीछे कवर से बाहर आने की हालत में नहीं थे. रात के 2 बजे विजयंत कवर से बाहर आकर दुश्मनों पर सीधे प्रहार करने लगे और इसी बीच पाकिस्तानियों की एक गोली सीधे विजयंत के सिर में आकर लगी और वो वहीं शहीद हो गए.
विजयंत का वो आखिरी खत..
विजयंत का आखिरी खत आज भी करोड़ों युवाओं के लिए प्रेरणा है. अपनी शहादत से पहले उन्होंने ये खत अपने साथी को देते हुए कहा था अगर मैं लौटकर न आऊं तो ये लेटर मेरे परिवार वालों को दे देना. उस चिट्टी में लिखा था-
‘डियर पापा, मम्मी जब तक आपको ये चिट्ठी मिलेगी मैं स्वर्ग में अप्सराओं की मेहमानवाजी का लुत्फ उठा रहा हूंगा. मुझे कोई अफसोस नहीं अगर मैं दोबारा मनुष्य का जन्म लूंगा तो फिर सेना में भर्ती होकर भारत माता की सेवा करना चाहूंगा. अगर आप आ सकें तो इस जगह पर जरूर आइयेगा और देखिएगा जहां सेना ने आने वाले कल की लड़ाई लड़ी थी. जवानों को इस बलिदान के बारे में बताया जाना चाहिए. मुझे आशा है कि मेरी तस्वीर करणी माता के साथ रखी जाएगी. मेरे शरीर का जो भी अंग दान के योग्य हो उसे दान किया जाए. अनाथ आश्रम में कुछ पैसे दे दीजिए और रुकसाना को हर महीने पैसे देते रहिएगा और योगी बाबा से भी जरूर मिलिएगा. बर्डी को मेरी शुभकामनाएं. इन लोगों के बलिदान को कभी मत भूलिएगा. ठीक है अब मेरा डर्टी डजन की टुकड़ी के साथ जाने का वक्त हो गया है, मेरे दस्ते में 12 जवान हैं.
आप सभी को मेरी शुभकामनाएं लिव लाइफ, किंग साइज आपका रॉबिन
विजयंत के पिता वी. एन. थापर पिछले 25 सालों से हर साल कारगिल जाते हैं और उस जगह को सलाम करते हैं. जहां उनके बेटे की शहादत हुई थी. वो बताते हैं 25 सालों में इस बार पहली बार हुआ है कि मैं अपनी सेहत की वजह से वहां नहीं जा पा रहा हूं. लेकिन मैं सबसे अपील करता हूं कि एक बार वहां जरूर जाना चाहिए. जहां हमारे देश के वीर जवानों ने अपने देश के लिए अपना खून बहाया है.