प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नई सरकार में मंत्रियों के पोर्टफोलियो की घोषणा कर दी गई है. सरकार के महत्वपूर्ण विभाग में कोई बदलाव नहीं किया गया. अमित शाह को गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी एक बार फिर से दी गई है. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, विदेश मंत्री एस जयशंकर, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के विभाग पिछले मंत्रिमंडल की तरह वही रहेंगे. हालांकि एक अहम बदलाव हुआ है हेल्थ मिनिस्ट्री में.
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को एक बार फिर स्वास्थ्य मंत्रालय की कमान दी गई है. 63 साल के जेपी नड्डा पीएम मोदी के पहले कार्यकाल में भी स्वास्थ्य मंत्री थे. 2019 में उन्हें बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया था. स्वास्थ्य के अलावा इस बार नड्डा को मिनिस्ट्री ऑफ केमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स की जिम्मेदारी भी दी गई है. नड्डा से पहलेमनसुख मांडविया इस पद पर थे.
मिशन इंद्रधनुष का दुनियाभर में हुई थी तारीफ
अपने पहले कार्यकाल में जेपी नड्डा ने ‘मिशन इंद्रधनुष’ लॉन्च किया था. जिसका मकसद 2020 तक उन सभी बच्चों को कवर करना था जिन्हें डिप्थीरिया, काली खांसी, टेटनस, पोलियो, तपेदिक, खसरा, हेपेटाइटिस बी सहित सात वैक्सीन-रोकथाम वाली बीमारियों के खिलाफ वैक्सीन नहीं लगाया गया था.
कहा जाता है कि मिशन इंद्रधनुष की प्रधानमंत्री नियमित रूप से समीक्षा करते थे और इसे उनकी पसंदीदा परियोजनाओं में से एक माना जाता है. मिशन इंद्रधनुष के तहत इतना बढ़िया काम किया गया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मई में प्रगति की समीक्षा बैठक में इस योजना के 90 प्रतिशत की कवरेज लक्ष्य को पूरा करने की डेडलाइन को 2020 से घटाकर 2018 तय कर दिया था. इसकी दुनियाभर में सराहना भी की गई थी.
जे.पी.नड्डा ने भारत का पहला फार्मेसी रिटेल स्टोर लॉन्च किया था. इसका नाम था AMRIT यानी अफोर्डेबल मेडिसिन्स एंड रिलायबल इम्प्लांट्स फॉर ट्रीटमेंट. इसे लांच करने का मकसद कैंसर और हृदय रोगों के लिए दवाएं 60 से 90 प्रतिशत तक मौजूदा बाजार दरों पर उपलब्ध कराना था. फार्मेसी हृदय संबंधी प्रत्यारोपण भी उपलब्ध कराएगी जिसे 50 से 60 प्रतिशत छूट पर बेचे जाने का प्रावधान था.
असाध्य बीमारियों पर पहला प्रहार
लोकसभा चुनाव 2024 के मैनिफेस्टों में बीजेपी का घोषणापत्र कहता है कि स्तन कैंसर, सर्वाइकल कैंसर, एनीमिया और ऑस्टियोपोरोसिस की रोकथाम के मकसद से मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया जाएगा. जिसमें सर्वाइकल कैंसर को खत्म करने पर ध्यान दिया जाएगा.
तो ये देखना दिलचस्प होगा कि एचपीवी यानी ह्यूमन पैपिलोमा वायरस के वैक्सीनेशन प्रोग्राम को आगे कैसे किस रफ्तार से ले जाएंगे. एचपीवी महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर के लिए जिम्मेदार है, जिसे भारत में महिलाओं में कैंसर से होने वाली मौतों का सबसे बड़ा कारण माना जाता है.
इंफेक्शियस डिजीज स्पेशलिस्ट इश्वर पी गिलादा का कहना है कि टीबी कंट्रोल पर बारीकी से नजर रखी जानी चाहिए. क्योंकि सरकार ने 2025 तक टीबी से मुक्त होने का लक्ष्य तय किया है. 2025 आने में साल भर से भी कम समय है. इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए नड्डा को युद्ध स्तर पर काम करना होगा.
यही नहीं भारत में कैंसर, डायबिटीज, हेपेटाइटिस बी, एचआईवी एड्स जैसी बीमारियां भी लगातार बढ़ रही है. इन बीमारियों की रोकथाम के लिए जो भी प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं उसकी समीक्षा नए सिरे से करना हर हाल में जरूरी है ताकि नए केसेस पर लगाम लगाया जा सके.
बीजेपी का सबसे बड़ा फोकस आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना पर रहेगा. योजना की शुरुआत सितंबर 2018 में की गई थी. योजना के तहत देश भर में कम आय वाले लोगों की देखभाल के लिए हर साल हर परिवार को 5 लाख रुपये तक का स्वास्थ्य कवरेज दिया जाता है. इस योजना को केंद्र सरकार और राज्य दोनों से फंडिंग मिलती है.
इस साल जनवरी तक देशभर में 30 करोड़ आयुष्मान कार्ड बांटने का टारगेट पूरा किया जा चुका है. उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 4.83 करोड़ लोगों के लिए कार्ड किए जा चुके हैं. दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश और फिर महाराष्ट्र है. बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि अगर वह दोबारा चुनी गई तो वरिष्ठ नागरिकों और ट्रांसजेंडरों को कवर करने के लिए इस योजना का विस्तार किया जाएगा.
अगले पांच सालों के लिए पांच सुझाव
पब्लिक हेल्थ इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर दिलीप मावलंकर कहते हैं कि 2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य पूरा करना है तो सरकार को हेल्थ सिस्टम की हर छोटी से बड़ी खामियों को सुधारना होगा. इसके लिए दिलीप मावलंकर ने पांच सुझाव दिए हैं.
पहला- हेल्थ पर जीडीपी का 3 फीसदी खर्च करने की तरफ बढ़ना चाहिए. अब तक भारत सिर्फ 1.8 फीसदी के आसपास खर्च करता है. इस कड़ी में एक एक्सपर्ट कमिटी बननी चाहिए जिसमें फाइनेंस मिनिस्टर, अर्थशास्त्री और सभी राज्य शामिल हो. 3 चार महीनें में एक रोड मैप तैयार हो कि अगले पांच सालों में ये पैसा कहां से आएगा और कहां खर्च होगा. इससे पब्लिक सिस्टम में बड़ा बदलाव आएगा.
दूसरा- प्राइमरी हेल्थ सिस्टम को मजबूत करना होगा. आशा वर्कर्स के अलावा आज भी गांव में आरोग्य का कोई भी आदमी फुल टाइम ट्रेन्ड नहीं है. अगले 5 सालों में ये टार्गेट होना चाहिए कि हर एक गांव में एक गवर्मेंट फंडेड नर्स की नियुक्ति हो ही. ये सब करने में दिलीप मावलंकर के अनुमान के मुताबिक 30 हजार करोड़ के आसपास का खर्चा आएगा जो भारत सरकार के लिए बड़ी रकम नहीं है. इससे फायदा ये होगा कि हम गर्व से कह सकेंगे कि आजादी के 75 साल बाद बुनियादी स्वास्थ्य सेवा के लिए एक व्यक्ति को गांव से बड़े शहर नहीं जाना पड़ता है.
तीसरा- गरीब लोगों के उपर बढ़ते महंगी दवाइयों के बोझ को कम करने पर भी खासा जोर देने की जरूरत है. इसके लिए जेनेरिक दवाओं को क्वाटिंटी बढानी होगी. हर एक गांव में एक दवाई की दुकान भी खोलने का प्रयास हो जहां सस्ती दवाइयां बिके. इससे होगा ये कि एक गरीब आदमी को दवाइयां बाहर से जाकर नहीं खरीदनी पड़ेगी.
चौथा- नए नए मेडिकल कॉलेज खोलना अच्छी बात है. लेकिन जो डॉक्टर पास हो रहें हैं उनकी क्वालिटी पर भी नजर होनी चाहिए. यानि वो डॉक्टर क्या गांव में लोगों का इलाज कर पाएगा, उन्हें गांव में लोगों का इलाज करने के लिए कैसे प्रोत्साहित किया जाए, वगैरह वगैरह. भारत में फिलहाल हेल्थ ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट बहुत बुरी कंडीशन में है. इसे दुरुस्त करने के लिए एक कमिशन बनाने की जरूरत है जो ये प्लान करें कि अगले 50 सालों में कितने डॉक्टर्स, नर्स की जरूरत है.
पांचवा- स्वास्थ्य मंत्री को साल में एक दिन तो निकालना चाहिए ताकि वो ग्राउंड लेवल पर काम कर रहें एनजीओ, डॉक्टर्स की परेशानियां सुन सके. उन्हें किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, किस तरह के सुधार वो चाहते हैं. यहां तक की उन्हें उन मरीजों की भी राय लेनी चाहिए जो सरकारी अस्पतालों में इलाज कराते हैं. इन सुझावों को बजट बनाने के दौरान तवज्जो दी जा सकती है.
दवाइयों की क्वालिटी पर होगी नजर
मिनिस्ट्री ऑफ केमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स का अतिरिक्त प्रभार दिए जाने के बाद नड्डा का काम और कठिन हो जाएगा. सरकार ने उन्हें ये जिम्मेदारी भी सोच समझकर दी है. लंबे समय से दोनों मंत्रालयों के बीच आपसी खींचतान जारी है.
फार्मास्यूटिकल्स विभाग मिनिस्ट्री ऑफ केमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स के अधीन है, उद्योग को नियंत्रित करने वाले नियम भारत के ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया के अधीन हैं, जो स्वास्थ्य मंत्रालय का एक हिस्सा है. महत्वपूर्ण नीतिगत मुद्दों पर हो रही देरी को देखते हुए उद्योग ने एक सिंगल ऑथिरेटी की मांग की थी जो दोनों पक्षों को संभाल पाए. नड्डा के नेतृत्व में यह वास्तविकता बन सकती है.
ये इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत में नियामक निरीक्षण की कमी है. पिछले कुछ ही महीने में ऐसे कई मामले सामने आएं जिसमें कहा गया कि भारत में दवाइयां घटिया क्वालिटी की बन रही है. नड्डा के सामने एक चुनौती भारतीय कंपनियों की तरफ से विदेशों में निर्यात की जाने वाली दवाओं की क्वालिटी में सुधार करने का होगा. इसके लिए सख्त पॉलिसी लागू करना होगा और इसमें उनकी कानूनी पृष्ठभूमि काम आ सकती है क्योंकि वो इसकी जटिलता को बारिकी से समझते हैं.