चुनौती भी मोदी और संभावना भी मोदी

वर्ष 1998 में जब गुजरात में केशुभाई पटेल के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तो चीजें कुछ ही समय में हाथ से फिसलती महसूस होने लगीं. सरकार अस्थिर और अलोकप्रिय होने लगी. 2001 आते-आते नेतृत्व परिवर्तन करना पड़ा और यह पहला मौका था जब संगठन के एक सक्रिय सिपाही को सत्ता की बागडोर सौंप दी गई. नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बना दिए गए.

इसके बाद मोदी ने पीछे पलटकर नहीं देखा. 2002 में राज्य में बहुत कुछ हुआ जो पूरी दुनिया की नज़र में आया और फिर विधानसभा चुनाव हुए जिसमें एक मजबूत जनादेश भाजपा को मिला. मोदी गुजरात की 182 सीटों वाली 10वीं विधानसभा में 127 सीटें जीतकर दोबारा मुख्यमंत्री बने. ये सिलसिला 2007 और 2012 में भी दोहराया गया.

2012 में मतगणना के बाद जब 114 सीटों का स्पष्ट बहुमत लेकर नरेंद्र मोदी अहमदाबाद स्थित पार्टी कार्यालय से लोगों को संबोधित कर रहे थे तो संबोधन की भाषा हिंदी थी और ऐसा स्पष्ट दिख रहा था कि मोदी दरअसल, गुजरात को नहीं देश को संबोधित कर रहे थे.

दिल्ली में बैठकर बहुतों को ऐसा लगता था कि मोदी विवादों की जितनी बड़ी गठरी अपने सिर पर लादे चल रहे हैं, उससे दिल्ली उनके लिए अस्पृश्य बनी रहेगी. खुद पार्टी में इसपर बहुत अंतरविरोध और गतिरोध थे. अडवाणी की पकड़ कमजोर हो चुकी थी. गडकरी और राजनाथ पार्टी का संगठन संभाल रहे थे. जेटली और सुषमा सदन में भाजपा के चेहरे थे. इन सब के लिए भी मोदी सहज नहीं थे.

लेकिन सितंबर 2013 में मोदी भाजपा की ओर से 2014 के चुनाव के लिए पार्टी का प्रधानमंत्री पद का चेहरा बने. जनादेश पलटा और मोदी 282 की बड़ी जीत के साथ दिल्ली पहुंचे. 2019 में भाजपा और बड़ी हो गई लेकिन 2024 ने भाजपा को एक झटका दिया है. सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा 240 पर सिमट गई है और 272 का आकड़ा अब एनडीए के ज़रिए ही साधा जा सका है.

पहली पहली बार है…

4 जून को मतगणना के बाद जब नरेंद्र मोदी दिल्ली स्थिति भाजपा मुख्यालय में कार्यकर्ताओं के बीच उपस्थित हुए तो मंच पर लगे बैनर पर लिखा था- धन्यवाद भारत. और नीचे लिखा था- राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए).

ये पहली बार है जब मोदी तो हैं पर बहुमत नहीं है. नरेंद्र मोदी के राजनीतिक जीवन में सत्तासीन होने की यह पहली परिस्थिति 24 बरस में बनी है जब उनको सहारे की कुर्सी पर बैठना पड़ रहा है. मोदी इसके अभ्यस्थ नहीं. और इसलिए कई तरह के तर्क और प्रश्न चर्चाओं में हैं.

मोदी ने तीसरी बार ली PM पद की शपथ

मसलन, गठबंधन धर्म कैसे संभालेंगे. सामन्जस्य कैसे बनेगा और कबतक टिकेगा. मोदी के भाषण में भ्रष्टाचार पर प्रहार और कठिन फैसलों के प्रति जो प्रतिबद्धता दिखाई देती है वो गठबंधन में कैसे अवतरित होगी. भाजपा से इतर विचारधारा के सहयोगी उसे कैसे आत्मसात करेंगे.

विपक्ष इस नैरेटिव को भी हवा दे रहा है कि मोदी के नेतृत्व में एनडीए के घटक दल लगातार कमज़ोर होते गए हैं. उनका जनाधार, उनकी बार्गेनिंग और उनकी पहचान कमज़ोर पड़ी है. अधिकतर सहयोगी मोदी के चेहरे के पीछे ही खड़े नज़र आते हैं. बरगद के नीचे सिमटती संभावनाएं एनडीए के अन्य दल महसूस भी करते हैं. जाहिर है कि ये सवाल मौजूदा या भविष्य में जुड़ सकने वाले दलों के दिलों में भी होगा.

चंद्रबाबू खुद जिस घोषणापत्र से जीतकर आए हैं वो मुस्लिम आरक्षण की बात करता है. नीतीश कटिबद्ध हैं कि एनआरसी और यूसीसी नहीं चलेगा. जयंत जाट-मुस्लिम सामन्जस्य का नारा लगाते आए हैं. अजित के लिए भी आसान नहीं है क्योंकि वो भाजपा के साथ तो हैं लेकिन भाजपा की विचारधारा के नहीं. ऐसे कितने ही प्रश्न आजतक चाय के प्याले खाली कर रहे हैं.

तो जाहिर है कि ये चुनौतियां हैं और इस तरह के सवाल राजनीति में, खासकर चंद्रबाबू और नीतीश कुमार के इतिहास को देखते हुए लाज़मी हैं. मोदी चूंकि खुद गठबंधन के अनुभव वाले नहीं हैं इसलिए उनके लिए भी थोड़ी असहजता तो होगी. सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि सहयोगी दलों के मंत्रियों को फ्री-हैंड कितना और कैसे दिया जाएगा. उनके बयानों और राज्यों में चुनावों के वक्त नैरेटिव को कैसे नियंत्रित किया जाएगा.

जिन बड़े फैसलों की बात मोदी अपने भाषणों में राममंदिर प्राणप्रतिष्ठा के समय से करते आ रहे हैं, उन फैसलों को अर्जित करने की ज़मीन और मार्ग वो कैसे तैयार करेंगे. इससे भी बड़ा सवाल है कि हारी हुई सीटों और क्षेत्रों को दोबारा से भाजपा के लिए उर्वरक बनाने का काम कैसे किया जाएगा. संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर विपक्ष का नैरेटिव और भाजपा की बिखरी हुई सोशल इंजीनियरिंग को संभालना भी अब एक चुनौती होगी.

आपदा में अवसर

लेकिन मेहनत और फोकस मोदी की कार्यशैली के अभिन्न हिस्से हैं. उनका अपना तरीका है जिससे वो चीज़ों को देखते और करते हैं. ये राजनीतिक दलों की पारंपरिक ट्रेनिंग से अलग है. इसलिए अक्सर कयास मोदी के मामले में काम नहीं आते. मंत्रिपरिषद के चेहरे हों, राज्यों के मुख्यमंत्री हों, पार्टी में जिम्मेदारी हो, राष्ट्रपति का चुनाव हो, टिकटों का वितरण हो, चुनाव के नारे हों, मोदी हमेशा दूसरों और अपनों को चौंकाने के लिए जाने जाते रहे हैं.

सरकार गठन का अभी तक का रास्ता बहुत मुश्किल भरा नहीं दिखाई दिया है. किसी और गठबंधन में सरकार गठन से पहले की फरमाइशें और भाव-ताव अबतक जनता को भी खासी अस्थिरताओं से भर चुके होते. 4 जून से 9 जून तक मीडिया भी मसाले के लिए तरसता ही रहा. मोदी के एनडीए में ऐसा नहीं हो सका है. अनुभव और बैलेंस के लिए कुछेक चेहरों को जोड़कर मोदी एक नए, युवा और सधे हुए मंत्रिपरिषद के साथ शपथ ले चुके हैं.

मोदी के साथ इस बार 71 मंत्री

दिल्ली आने से पहले भी सवाल यही था कि मोदी दिल्ली के गलियारों से परिचित नहीं. लेकिन दिल्ली में मोदी की जड़ें बहुत गहरी हो चुकी हैं. अब सवाल गठबंधन का है. 24 साल में पहली बार मोदी गठबंधन धर्म से रूबरू होंगे. दिल्ली में मोदी के पिछले दो कार्यकाल भी गठबंधन के साथ थे लेकिन स्पष्ट बहुमत की स्थिति उन्हें शक्तिशाली बनाए रखती रही. वो गठबंधन की कृपा पर नहीं रहे. गठबंधन उनकी कृपा पर रहा. सरकार से लेकर चुनावों तक एनडीए के घटकों की निर्भरता मोदी पर ही रही.

वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा लगता है कि मोदी अब सामन्जस्य के नैरेटिव पर जोर देंगे. सरकार के अंदर भी और लोगों के बीच भी. संविधान को माथे से लगाकर वो एक इशारा कर चुके हैं. आने वाले दिनों में फोकस इसपर दिखेगा कि कैसे दलितों, पिछड़ों को साधा जाए. अति पिछड़ों को कैसे वापस बुलाया जाए.

मोदी के लिए विश्लेषक जिन बातों को चुनौती मान रहे हैं, उनके प्रति मोदी की रणनीति क्या होगी, ये सबसे महत्वपूर्ण बात है. और मोदी की रणनीति किसी पारंपरिक राजनीतिक शैली से तय नहीं होती. वो अपने अलग तरीकों के लिए जाने जाते हैं. विपक्ष और विश्लेषक जिस तरह का गणित अपने मन में बुन रहे हैं, मोदी की चादर उससे एकदम अलग ताने-बाने पर रची-बनी हो सकती है. कहा जा सकता है कि इतने सवालों के बीच मोदी की अन-प्रडिक्टिबिलिटी ही मोदी की ताकत है क्योंकि वो विपक्ष की अपनी तैयारी को तोड़कर नया मैदान खड़ा कर देती है.

दूसरी अहम बात यह भी है कि देश में राजनीति पिछले 10-15 वर्षों में खासी बदली है. पुराने लोग, पुराने रिश्ते, पुराने तरीके और पुरानी आदतें अब कारगर नहीं हैं. नए दौर में संभावनाएं भी नई हैं और सीमाएं भी. मोदी की राजनीति नए प्रयोगों पर अधिक भरोसा करती रही है. इसलिए जाहिर है कि मोदी वर्तमान चुनौतियों का एक खाका मन में लेकर चल ही रहे होंगे.

मोदी की चुनौती और मोदी की ताकत के बीच के तटबंधों के बीच जो घास है, राजनीति में उसे ही नियति कहते हैं. नियति के दालान पर अब नई सरकार चल पड़ी है. भाग्य अब भविष्य की गोद में है.

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