क्या है दल-बदल कानून, हर कुछ दिनों पर क्यों उठती है इसमें बदलाव करने की मांग

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल विधानसभा अध्यक्ष विमान बनर्जी को विधायक मुकुल रॉय से जु़ड़े दलबदल मामले में आदेश पारित करने के लिए 7 अक्टूबर तक की समय सीमा दी है. दरअसल मुकुल रॉय ने विधानसभा चुनाव 2021 में भाजपा के टिकट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. हालांकि बाद में वे तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए. विपक्ष के नेता भाजपा विधायक सुवेंदु अधिकारी ने मुकुल रॉय समेत दो अन्य भाजपा विधायकों द्वारा तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने पर अयोग्य घोषित करने की याचिका दायर की है.

दल-विरोध कानून क्या है

दल-विरोध कानून में सांसदों और विधायकों के द्वारा एक पार्टी छोड़कर दूसरे पार्टी में शामिल होने पर दंडित करने का प्रावधान है. संसद ने इसे साल 1985 में दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में शामिल किया. इसका उद्देश्य विधायकों द्वारा बार-बार बदलते पार्टियों से हतोत्साहित करके सरकार को स्थिरता में लाना था. साल 1967 के आम चुनाव के बाद विधायकों ने दल-बदल करके कई राज्य सरकारों को सत्ता से बाहर किया था.

निर्णायक प्राधिकारी कौन है

कानून के तहत तीन प्रकार से सांसद और विधायक दल-बदल करते हैं. पहला वह स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दे. दूसरा तब जब एक सांसद और विधायक निर्दलीय रूप से निर्वाचित हुए है और बाद में किसी पार्टी में शामिल हो जाते हैं. तीसरा तब जब विधायक या सांसद मनोनित होता है और वह 6 महीने के भीतर किसी राजनीतिक दल का दामन थाम ले. इन तीनों में किसी भी परिदृश्य में कानून का उल्लंघन होने पर दलबदल करने वाले विधायक या सांसद को दंडित किया जाता है. ऐसे मामलों में सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने की शक्ति होती है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक सांसद या विधायक अपने फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दे सकते हैं.

दलबदल मामलों में अंतिम फैसला आने में कितना वक्त लगता है?

दलबदल कानून के मुताबिक एक समय-सीमा प्रदान नहीं किया गया है, जिसके भीतर पीठासीन अधिकारी अपना फैसला दे. ऐसे कई उदाहरण हैं जब एक अध्यक्ष ने विधायिका अवधि के अंत तक कोई फैसला नहीं लिया है. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया. दरअसल स्पीकर ने तीन साल बाद भी उसके खिलाफ दलबदल याचिका पर फैसला नहीं किया था. सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि एक आदर्श स्थिति में स्पीकर को तीन महीने के भीतर एक दल बदल याचिका पर फैसला ले लेना चाहिए.

क्या दल-बदल विरोधी कानून से सरकारें स्थिर हुई हैं

दल-बदल विरोधी कानून के बावजूद विधायक ने कई राज्यों की सरकारों को प्रभावित किया है. जैसे राजस्थान में बसपा के छह विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया. साल 2019 में गोवा में कांग्रेस के 15 में से 10 विधायक भाजपा में चले गए. सिक्किम में सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के 15 में से 10 विधायकों ने भाजपा ज्वाइन कर लिया.

कानून में सुधार के लिए विशेषज्ञों ने दी सलाह

टिप्पणीकारों का मानना है कि यह कानून पूरी तरह विफल है. चुनाव आयोग का मानना है कि इस मामले पर निर्णायक प्राधिकारी होना चाहिए. इसके अलावा दूसरे विशेषज्ञों का तर्क है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को दलबदल याचिकाओं पर सुनवाई करनी चाहिए

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