तमाम धरना प्रदर्शनों खासकर हरियाणा-पंजाब के किसानों के विरोधों के बीच रविवार को तीन में से दो कृषि संबंधी विधेयकों को राज्यसभा से भी पारित कर दिया गया. विरोध के तीखे सुर को इससे भी समझा जा सकता है कि एनडीए की पुरानी सहयोगी अकाली दल की सांसद हरसिमरत कौर ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोहराते रहे हैं कि इन बदलावों से किसान फायदे में रहेंगे. किसानों को लेकर मोदी सरकार के तीन अध्यादेशों ने अब विधेयक का रूप ले लिया है.
विपक्ष के विरोध के बावजूद सदन ने कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सरलीकरण) विधेयक-2020 और कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020 को ध्वनिमत से मंजूरी दे दी. सरकार की दलीलों, किसानों और राजनीतिक पार्टियों के विरोध के बीच कौन सही है यह समझना होगा.
क्या हैं सरकार के तीन बिल
पहले बिल को सरसरी तौर पर देखें तो इससे किसानों को APMC द्वारा संचालित मंडियों के बाहर भी किसानों को अपनी उपज को बेचने की आजादी मिल रही है. यह ध्यान रखना होगा कि यह आइडिया एपीएमसी को बंद करने का नहीं, बल्कि एक किसान की पसंद को तरजीह देने का है. यदि किसी किसान को यह लगता है कि अन्य खरीदार के साथ वह बेहतर सौदा कर सकता है तो वो एपीएमसी मंडी में अपनी उपज बेचने के बजाय बाहरी विकल्प को चुन सकता है.
दूसरा विधेयक कारोबारियों को खाद्य सामग्री के भंडारण की इजाजत देता है जबकि पहले एसेंसियल एक्ट के तहत इस पर रोक थी क्योंकि माना जाता था कि इससे कालाबाजारी और जमाखोरी बढ़ती है. लेकिन नए विधेयक के बाद कारोबारी बिना रोक टोक के खाद्य सामग्री का भंडारण कर सकेंगे.
तीसरा विधेयक फॉर्मर्स अग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विस बिल किसानों को कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग यानी ठेके पर खेती करने को लेकर एक फ्रेमवर्क मुहैया कराएगा. इसमें एक किसान किसी कंपनी से कॉन्ट्रैक्ट पर लिखित समझौता कर सकता है और कंपनी अपनी मर्जी के हिसाब से खेती करेगी. इसकी एवज में कंपनी को किसान को भुगतान करना होगा.
क्या है बिल का मकसद?
उपर्युक्त तीनों विधेयकों का मकसद कृषि बाजार को उदार बनाना है. इनका मुख्य मकसद भारतीय कृषि बाजार को उद्यमी बनाना है जहां किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य मिल सके.
क्या है सरकार का तर्क
अंग्रेजी के समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि इन बदलावों को देखने का दो नजरिया है. एक पक्ष का मानना है कि जो मसौदा है वह जमीन पर भी उसी रूप में उतरेगा. सरकार का मानना है कि किसान एपीएमसी मंडियों के एकाधिकार के चंगुल से बाहर निकलेंगे और पारंपरिक बिचौलियों (जिसे आढ़तिया कहते हैं) से उबर पाएंगे. किसान मन मुताबिक अपनी उपज को बेच सकेंगे.
विरोधियों की दलील
इसके उलट विपक्ष और किसान संगठनों का मानना है कि सरकार इसके जरिये न्यूनतम समर्थन (एमएसपी) तय करने की भूमिका से अपने को अलग कर रही है. निश्चित रूप से सरकार की तरफ से रेगुलेट होने वाली मंडियों में भी एमएसपी लागू होगी, लेकिन निजी तौर पर किए जाने वाले सौदे इस दायरे से बाहर होंगे.
अब सवाल है कि कौन सा नजरिया सही है? इसका जवाब देना आसान नहीं है. लेकिन इतना जरूर है कि दोनों पक्षों के पास कुछ वैलिड प्वाइंट हैं. हालांकि दोनों के नजरिया को पूरी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता है.
क्या मंडियां बंद हो जाएंगी?
मसलन, नए कानून से एपीएमसी मंडियां बंद नहीं हो जाएंगी और न ही एमएसपी की प्रक्रिया खत्म होगी. यह सच है कि अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में उदारीकरण का विस्तार हुआ है और हालात भी सुधरे हैं.
किसान के पास अधिक विकल्प क्यों नहीं होने चाहिए?
सवाल है कि किसान के पास अपनी उपज को बेचने का अधिक ऑप्शन क्यों नहीं होना चाहिए? अगर किसान को बाहर सौदा पसंद नहीं आएगा तो जाहिर है वह पहले की तरह मंडी में ही अपनी उपज बेचेगा. अगर कॉरपोरेट APMC मंडियों को कमजोर करते हैं तो इसका मतलब है कि किसानों ने मंडी से बाहर अपनी उपज को बेचने का रास्ता चुना है. क्या ऐसा हो सकता है कि आढ़तिये और मंडी के दिग्गजों को नए सुधारों से खतरा हो?
क्या कहते हैं आंकड़े?
भारत में एमएसपी को लेकर बेवजह का हंगामा हो रहा है. अंतिम कृषि जनगणना (2015-16) के मुताबिक कुल भूमि जोत में 86% हिस्सेदारी लघु और सीमांत (2 हेक्टेयर से कम) थी. छोटे खेतिहर किसान विशुद्ध रूप से खरीद कर खाने पर निर्भर हैं. जैसे ही एमएसपी बढ़ाई जाती है तो सबसे ये छोटे किसान ही प्रभावित होते हैं.आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर किसान सरकार द्वारा तय एमएसपी के बजाय अपनी उपज मंडी से बाहर खरीदारों को बेचते हैं.
किसान बाजारों को लेकर इतने सशंकित क्यों हैं?
दूसरी तरफ, कोई यह समझ सकता है कि किसान बाजारों को लेकर इतने सशंकित क्यों हैं? इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जब सरकार ने प्याज के निर्यात पर बैन लागू किया था. ऐसा करते हुए सरकार ने किसानों (उत्पादकों) के बजाय उपभोक्ताओं के हितों को प्राथमिकता दी.
अतीत में ऐसा कई दफा हो चुका है जब सरकार ने किसानों के बजाय उपभोक्ताओं के हितों को तरजीह दी गई. सरकार के इन फैसलों के चलते किसान अपनी उपज को ऊंची कीमत पर बेचने से वंचित रह गया. कैसे मिले उपज का सही दाम
किसानों के साथ एक दूसरी समस्या जानकारी की कमी है. इसके चलते वो अपना भला-बुरा नहीं सोच पाते हैं. फैसला लेने में उन्हें दिक्कत होती है. उदाहरण के लिए, एक औसत किसान अपनी उपज का सही मूल्य कैसे प्राप्त करेगा? इसी तरह, अपनी उपज का भंडारण करने को लेकर पर्याप्त बुनियादी ढांचा न होने की वजह से किसान मोल भाव करने में सक्षम नहीं हो पाता है, भले ही उन्हें सही कीमत पता हो.
आखिर क्या होगा?
आखिरकार इन सुधारों को लागू किए जाने के बाद क्या होगा? अगर किसान बाजार में शोषण महसूस करेंगे तो राजनेताओं को दोषी ठहराएंगे, और अगर उन्हें खुले बाजार में लाभ मिला तो जाहिर वे उधर का रुख करेंगे.